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________________ निशीथ सूत्र कठिन शब्दार्थ - अणागाढे - अनागाढ स्थिति में, परिवासेइ पर्युषित करता है। रात में परिस्थापित करता है - रखता है, परिवासियस्स - रात्रि में रखे हुए का, तयप्पमाणंत्वक्प्रमाण - चुटकीभर भी, भूइप्पमाणं भूतिप्रमाण राख के कण जितना भी, बिंदुप्पमाणंबिन्दुप्रमाण- बूँद मात्र भी । भावार्थ - ८१. जो भिक्षु अनागाढ स्थिति में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार को बासी रखता है - रात में रखता है अथवा बासी रखते हुए का अनुमोदन करता है। ८२. जो भिक्षु अनागाढ स्थिति में रात बासी रखे हुए अशन-पान - खाद्य-स्वाद्य रूप आहार का चुटकीभर भी, राख के कण सदृश भी या जल की बूँद जितना भी सेवन करता है। या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है 1 ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - जिस प्रकार आगमों में रात में भोजन करने का निषेध किया गया है, उसी प्रकार रात में आहार- पानी लाकर रखने का भी निषेध किया गया है। भिक्षु के लिए आहारादि का संग्रह सर्वथा परिवर्जनीय है । यही कारण है कि रात में भिक्षु रुग्णावस्था में भी औषधि तक अपने पास नहीं रख सकता। आवश्यकतानुरूप गृहस्थ से याचित औषध आदि वह सूर्यास्त से पहले वापस लौटा देता है। ऐसा करना उसकी अपरिग्रही, असंग्रही वृत्ति का परिचायक है। २४४ यहाँ विशेष रूप से ज्ञातव्य है, जैन दर्शन ऐकान्तवादी नहीं है, वह अनेकान्तवादी हैं । विभिन्न अपेक्षाओं और पक्षों को दृष्टि में रखते हुए कर्तव्य - अकर्त्तव्य, विधान- निषेध आदि का प्रतिपादन किया जाता है। यहाँ प्रयुक्त 'अनागाढ' शब्द इसी दृष्टि से विचारणीय है। 'अनागाढ' शब्द 'आगाढ' का अभावसूचक है। भक्षु द्वारा सायंकाल भिक्षा लाने के पश्चात् यदि महावात आंधी, तूफान सहित पानी बरसने लगे, अंधेरा फैल जाए, वैसी स्थिति में आहार न किया जा सके, पुनश्च ( उसके बाद) सूर्य अस्त हो जाए, वर्षा न रुके, आहार को परठने का अवकाश या अनुकूलता न हो सके, लाए हुए आहार को रात बासी रखना पड़े तो वह आगाढ स्थिति है। आहार अधिक मात्रा में आ गया हो, उसे परठना आवश्यक हो, उस समय यदि अकस्मात् मूसलधार वर्षा होने लगे, जो सूर्यास्त के बाद रात तक चलती रहे। इस प्रकार परठना संभव न हो सके, आहार को रात बासी रखना पड़े तो वह भी आगाढ स्थिति है । Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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