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________________ २२२ निशीथ सूत्र . ग्लान के वैयावृत्य में प्रमाद का प्रायश्चित्त जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवेसइ ण गवसंतं वा साइज्जइ॥ ३६॥ जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंतं वा साइजइ॥३७॥ जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठियस्स सएण लाभेण असंथरमाणस्स जो तस्स ण पडितप्पइ ण पडितप्पंतं वा साइज्जइ॥ ३८॥ ___ जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए अलब्भमाणे जो तं ण पडियाइक्खइ ण पडियाइक्खंतं वा साइज्जइ॥ ३९॥ . ___ कठिन शब्दार्थ - गिलाणं - ग्लान - रोगांतक पीड़ित, उम्मग्गं - उन्मार्ग - दूसरा रास्ता, पडिपहं - प्रतिपथ'- विपरीत पथ, अब्भुट्ठियस्स - अभ्युत्थित - उपस्थित, सएण - अपने द्वारा किए गए, लाभेण - प्रयत्न से लाभ, असंथरमाणस्स - यथेष्ट या पर्याप्त न होने पर, तस्स - उसके प्रति, ण पडितप्पइ - परिताप - खेद प्रकट नहीं करता, गिलाणपाउग्गेग्लान के लिए उपयोग करने योग्य, दव्वजाए - द्रव्यजात - अनुकूल पदार्थ या वस्तुएँ, अलब्भमाणे - नहीं प्राप्त करता हुआ, पडियाइक्खइ - प्रत्याख्यात करता है - आकर कहता है। - भावार्थ - ३६. जो भिक्षु ग्लान साधु के संबंध में सुनकर उसकी गवेषणा - खोज नहीं करता या पता नहीं लगाता अथवा गवेषणा न करने वाले का अनुमोदन करता है। ____३७. जो भिक्षु ग्लान साधु के विषय में सुनकर, जहाँ वह होता है, उससे भिन्न रास्ते से निकल जाता है या जिधर से आ रहा हो, वापस उधर ही लौट जाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ३८. जो भिक्षु ग्लान साधु की सेवा में अवस्थित होता हुआ अपने द्वारा किए गए प्रयत्न से उसके रोगादि में यथेष्ट, पर्याप्त लाभ न होने पर उसके समक्ष परिताप या खेद प्रकट नहीं करता अथवा खेद प्रकट नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। ३९. जो भिक्षु ग्लान साधु की अवस्थित हो, यदि उसे ग्लान के लिए उपयोग में लेने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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