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________________ नवम उद्देशक - राज्याधिकारी कर्मचारी हेतु कृत आहार - ग्रहण..... समय- समय की बात है, ऐहिक - भौतिक लालसामय जीवन को अनुरंजित करने के लिए व्यक्ति न जाने किस-किस प्रकार के कार्य करता है। स्वच्छन्द विहरणशील पशुओं तथा गगनविहारी पक्षियों को जीवनभर के लिए केवल अपने मनोरंजन हेतु बंदी बना लेता है । यह न्याय नहीं है वरन् वैभवमय जीवन की विडम्बना है । एक बात अवश्य है, प्राचीनकाल के राजा अपने सहयोगियों, सहचारियों, परिचारकजनों, सेवकों, भृत्यों तथा विनोदार्थ बंदीकृत पशु-पक्षियों की और उनके पोषक-पालकजनों के लिए खान-पान की यथेष्ट व्यवस्था रखते थे। परतंत्रता का भारी कष्ट तो उनको था ही किन्तु दैहिक दृष्टि से उनकी सुविधाओं का पूरा ध्यान रखते थे । 'स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्, पारतन्त्र्ये महद्दुःखम्' के अनुसार बेचारे वे तो यावज्जीवन व्यथित ही रहते थे । अस्तु - प्रसंगोपात रूप में उपर्युक्त विवेचन किया गया है। मूल विषय तो यहाँ यह है कि भिक्षु राजा द्वारा उपर्युक्त रूप में अपने कर्मचारियों, सेवकों, नौकरों, दास-दासियों तथा पशु-पक्षी पालकों आदि के लिए तैयार कराए गए, रखे गए भोज्य पदार्थों में से भिक्षु द्वारा आहार लिया जाना दोषपूर्ण है। यहाँ दोषापत्ति का सबसे मुख्य कारण उन लोगों के भोजन में आशंकित अन्तराय उत्पन्न होना है। २०३ भिक्षु द्वारा आहार तभी ग्राह्य होता है, जब कोई दाता अपने लिए तैयार किए गए भोजन का कुछ भाग त्याग एवं दान की भावना से प्रसन्नतापूर्वक उसे देता है। बाकी बचे हुए भोजन से अपना काम चलाता है। भिक्षु को देने से कम हुए भोजन की पुन: पकाकर पूर्ति नहीं करता है । भिक्षु के लिए वही भोजन एषणीय और दोष वर्जित होता है । इन सूत्रों में जिनके लिए भोजन बनाए जाने की चर्चा हुई है, उनके साथ यह तथ्य घटित नहीं होता । अंतराय के अतिरिक्त उक्त स्थानों में आहार लेने हेतु जाने में, आहार लेने में और भी अनेक दोष आशंकित हैं। ॥ इति निशीथ सूत्र का नवम उद्देशक समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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