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________________ - अष्टम उद्देशक - उपाश्रय में रात्रि में पुरुष या स्त्री संवास विषयक प्रायश्चित्त १७५ काम का वेग बड़ा दुर्वह होता है। उसका अवरोध-निरोध करने हेतु आत्म-शुद्धि परक सुदृढ मनःपरिणामों की आवश्यकता है। जहाँ भी इस सुदृढता में कमी आती है, व्यक्ति फिसल जाता है। वैसा हो जाने पर उसके मन में मैथुनार्थ स्त्री को प्राप्त करने का प्रबल भाव उदित हो जाता है। वह ऐसी चेष्टाएँ करता है, जिससे उसकी कलुषित कामना पूर्ण हो सके। भिक्षु की मानसिकता कभी कामोद्रेक से कालुष्ययुक्त न हो जाए एवं भिक्षु पतनोन्मुख न बन जाए इस हेतु इस सूत्र में उन दुर्वासनामय प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है, जिनसे भिक्षु को सदैव बचते रहना चाहिए। भोग हेतु स्त्री को प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा, उसकी दुष्प्राप्ति में मानसिक संक्लेश, चिंता, व्याकुलता शोकानुभूति इत्यादि कामविकार इसमें जो वर्णित हुए हैं, वे काममोहित व्यक्ति में उत्पन्न होते ही हैं। कामसूत्र में कामी पुरुष की इस प्रकार की चंचलता, आकुलता, लोलुपतापूर्ण चेष्टाओं का विस्तार से वर्णन है। ये चेष्टाएं किसी भी साधनाशील व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरा देती हैं। उपाश्रय में रात्रि में पुरुष या स्त्री संवास विषयक प्रायश्चित्त ____ जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ संवसावेंतं वा साइजइ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ .- णायगं - ज्ञातक - परिचित, अपने किसी संसारपक्षीय संबंध से युक्त, अणायगं - अज्ञातक - अपरिचित, संसारपक्षीय किसी संबंध से व्यतिरिक्त, उवासयं - उपासक - श्रमणोपासक, जिनधर्माराधक - श्रावक, अणुवासयं - अनुपासक - अन्यत्र मतावलम्बी, अंतो - भीतर, उवस्सयस्स- उपाश्रय के, अद्धं वा राई- अर्द्ध रात्रि पर्यन्त - आधी रात तक, कसिणं वा राई - कृत्स्न - समग्र रात्रि पर्यन्त - पूरी रात तक, संवसावेइसंवासित करता है - साथ में रखता है। - भावार्थ - १२. जो भिक्षु किसी परिचिता या अपने किसी संसार पक्षीय संबंध से युक्ता, अपरिचिता या अपने किसी संसार पक्षीय संबंध से अयुक्ता, श्रमणोपासिका - श्राविका या अनुपासिका - जैनेत्तर मतानुयायिनी स्त्री को उपाश्रय के भीतर आधी रात तक या पूरी रात तक संवासित करता है - रखता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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