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________________ सप्तम उद्देशक - आभूषण निर्माण आदि विषयक प्रायश्चित्त आदि धातुओं का निर्माण करने से संयम और छहकाया की विराधना होती है । अथवा 'भूइज्जइ' अर्थात् राजकुल में 'यह इस प्रकार धातु निर्माण करता है, इस प्रकार कह कर' छोड़ दिया जाता है। 'भूइज्जइ' के स्थान पर 'सूइज्जइ' हो राजकुल उसके धातुवाद की सूचना कर दी जाती है। तो उसे राजकुल में उसे बन्दी बना दिया जाता है । इत्यादि दोष आते हैं अथवा राजकुल में उससे स्वर्ण आदि धातुओं का निर्माण करवाया जाता है। लोहा आदि कूटने से शरीर में बांधा भी उत्पन्न हो सकती है । अथवा उन (राजकुल आदि) के द्वारा ग्रहण किया जा सकता है । इत्यादि दोषों का कारण समझ कर लोहा आदि धातुओं का धमन आदि नहीं करें, सञ्चय आदि नहीं करें एवं उनका परिभोग (अथवा कड़े आदि के रूप में पहनना ) भी नहीं करे।" पूज्य गुरुदेव (स्व. बहुश्रुत श्रमण श्रेष्ठ पू० श्री समर्थमलजी म. सा.) भी ‘लोहाणि’ का अर्थ 'कमाना' फरमाया करते थे। अतः पूर्व परम्परा ( धारणा ) के अनुसार- उपर्युक्त प्रकार से अर्थ समझना रचित ही ध्यान में आता है। यहाँ कामोद्रेकवश, दुर्दम वासना के परिणामस्वरूप यदि कोई भिक्षु अपने को सुन्दर, मोहक, आकर्षक दिखाने हेतु विभिन्न धातुओं के कटक या आभरण विशेष का निर्माण करता है तो वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है । धातुओं से आकार विशेष का निर्माण करने में धातु को गलाने, वांछित रूप में ढालने, घड़ने आदि में षट्काय विराधना का सहज प्रसंग बनता है, जो सर्वथा परिहेय और निन्द्य है । १४९ इस प्रकार का लज्जास्पद, हीन कार्य भिक्षु कदापि न करे । एतद्विषयक प्रेरणा हेतु ये सूत्र यहाँ प्रयुक्त हुए हैं। ... आभूषण निर्माण आदि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा जाव सुवण्णसुत्ताणि वा धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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