SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ उद्देशक - अब्रह्म के संकल्प से किए जाने वाले कृत्यों का प्रायश्चित्त १४१ इन दोष स्थानों में से किसी भी दोष स्थान का सेवन करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए (अवाउडिं) सयं कुज्जा सयं बूया करेंतं वा (बूएंतं वा) साइज्जइ॥ ११॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कलहं कुज्जा कलहं बूया कलहवडियाए गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ॥ १२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए लेहं लिहइ लेहं लिहावेइ लेहवडियाए वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ॥ १३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - अवाउडि - अनावृत - निर्वस्त्र, सयं - स्वयं, कुज्जा - करे, बूया - बोले - कहे, लेहं - पत्र, लिहइ- लिखता है, लिहावेइ - लिखवाता है। भावार्थ - ११. जो भिक्षु मैथुन सेवन के भाव से किसी स्त्री को स्वयं अनावृत - निर्वस्त्र करे या वैसा करने के लिए कहे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे। १२. जो भिक्षु किसी स्त्री के साथ मैथुन सेवन के भाव से कलह-क्रोध, रोष आदि व्यक्त करे, कलहपूर्ण वचन बोले, कलह करने हेतु बाहर जाता है या जाते हुए का अनुमोदन करता है। १३. जो भिक्षु किसी स्त्री के साथ मैथुन सेवन के भाव से (प्रेम) पत्र लिखता है, पत्र लिखवाता है या पत्र लिखने हेतु बाहर जाता है या जाते हुए का अनुमोदन करता है। ... ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इस तेरहवें सूत्र में साधु के द्वारा मैथुन सेवन के भाव से पत्र लिखने का प्रायश्चित्त बताया है। इससे फलित होता है कि साधु के द्वारा संयम मर्यादा के अनुरूप लिखने लिखवाने का प्रायश्चित्त नहीं आता है। - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पिटुंतं वा सोयंतं वा पोसंतं वा भ(ल्लि )लायएण उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइजइ॥ १४॥ . जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पिटुंतं वा सोयंतं वा पोसंतं वा भल्लायएणं उप्पाएत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा साइज्जइ॥ १५॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पिटुंतं वा सोयंतं वा पोसंतं वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy