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________________ १३८ निशीथ सूत्र कहा गया है। रजःकणों के दूरी करण या भूमि के प्रमार्जन से वे छोटे-छोटे जीव जो साधारणतः दिखाई नहीं पड़ते, मार्ग से हट जाते हैं, उनकी विराधना नहीं होती, इस हेतु भिक्षु रजोहरण धारण करता है। यह हिंसा से अपने आपको बचाने का एक विशेष उपकरण है। ___ इन सूत्रों में रजोहरण के अविहित, मर्यादा प्रतिकूल प्रयोग आदि के संबंध में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। रजोहरण सामान्यतः ऊन आदि की फलियों से बना होता है। उसके प्रमाण के संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि एक बार में प्रमार्जित - पूंजी हुई भूमि में एक पैर समा सके उतनी फलियों के विस्तार से युक्त रजोहरण विहित है। रजोहरण की फलियों का उत्कृष्ट प्रमाण बत्तीस अंगुल परिमित बतलाया गया है। इस प्रमाण से अधिक विस्तृत फलीयुक्त रजोहरण धारण करना दोष पूर्ण है। रजोहरण की फलियाँ भी बहुत सूक्ष्म या बारीक नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उनसे प्रमार्जन - पूंजने का कार्य भलीभाँति निष्पन्न नहीं हो पाता। क्योंकि वे अपेक्षा कृत अधिक कोमल होती हैं। बृहत्कल्प सूत्र, उद्देशक २ में ऊन आदि की फलियों से निर्मित रजोहरण के अतिरिक्त अन्य प्रकार का रजोहरण रखना भिक्षु के लिए कल्पनीय नहीं कहा गया है। स्थानांग सूत्र के पंचम स्थान में भी रजोहरण विषयक वर्णन है, जो पठनीय है। रजोहरण को मस्तक के नीचे रखकर, करवट में रखकर शयन करना उसका अनुचित उपयोग है, विधि विरुद्ध है। रजोहरण विषयक अन्यान्य निर्देश भावार्थ से स्पष्ट हैं। तात्पर्य यह है कि रजोहरण अहिंसा मूलक संयम साधना का सहायक उपकरण है, उसका उसी रूप में शास्त्र विहित प्रमाण, स्वरूप तथा विधि के साथ भिक्षु द्वारा उपयोग किया जाए, यह वांछनीय है। तत् प्रतिकूल प्रयोग दोषयुक्त होने से प्रायश्चित्त योग्य है। . ॥ इति निशीथ सूत्र का पंचम उद्देशक समाप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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