SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम उद्देशक - खान-निकटवर्ती नवस्थापित बस्ती में प्रवेश.... १२७ उल्लास एवं प्रमोद उत्पन्न होता है। प्रसन्नता के अतिरेक से वे स्वागत, सम्मान आदि हेतु ऐसी प्रदर्शनात्मक तैयारियाँ करने में लग सकते हैं, जिनमें विशेष रूप से आरम्भ-समारम्भ हों। ___यों अपशकुन और शुभ शकुन दोनों ही दृष्टियों से भिक्षु का नवस्थापित ग्राम आदि में अनुप्रवेश एवं भिक्षा ग्रहण दोषयुक्त बतलाया गया है। खान-निकटवर्ती नवस्थापित बस्ती में प्रवेश आदि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू णवगणिवेसंसि वा अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउयागरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुवण्णागरंसि वा (रयणागरंसि वा) वइरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥ ३३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - अयागरंसि - लोहे की खान, तंबागरंसि - ताँबे की खान, तउयागरंसिजस्त - रांगे की खान, सीसागरंसि - सीसे की खान, हिरण्णागरंसि - हिरण्य - रजत या चाँदी की खान, सुवण्णांगरंसि - सोने की खान, रयणागरंसि - रत्नों की खान, वइरागरंसिहीरों की खान। भावार्थ - ३३. जो भिक्षु लोहा, ताँबा, जस्त, सीसा, चाँदी, सोना, (रत्न) या हीरे - इन खनिज पदार्थों में से किसी की भी खान के निकट नवस्थापित बस्ती - आबादी में अनुप्रविष्ट होकर अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार लेता है अथवा लेते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - जहाँ लोहा, सोना, चाँदी आदि धातुओं तथा अन्यान्य खनिज पदार्थों की खाने होती हैं, वहाँ अनेक श्रमिक - मजदूर तथा कर्मचारी, व्यवस्थापक, संचालक आदि रहने लगते हैं। उनकी एक बस्ती आबाद हो जाती है। किसी भी खान के निकट नवस्थापित - नई बसी हुई आबादी में जाकर भिक्षा लेना उपर्युक्त सूत्र में जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका एक कारण तो इससे पूर्ववर्ती सूत्र में वर्णित अपशकुन, शुभशकुन विषयक है, यहाँ उसी रूप में समझ लेना चाहिए। . खान के निकटवर्ती नवस्थापित आबादी में पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना - हिंसा होना भी अपेक्षाकृत अधिक आशंकित है। · बहुमूल्य धातुओं तथा रत्नों की खानों के निकटवर्ती बस्तियों में जाना इसलिए भी अनुचित और अवांछित है, क्योंकि वहाँ यथार्थ न होने पर भी भिक्षु पर चोरी का भी इल्जाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy