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________________ चतुर्थ उद्देशक - परस्पर पाद-आमर्जन-प्रमार्जनादि का प्रायश्चित्त १०९ नए रूप का स्थापन हो जाता है। राजन्य का अर्थ राजा है तदनुसार रण्ण का एक अर्थ राजा भी होता है। ___ 'रण्ण' के आगे 'आरक्खिय' आने पर 'सवणे दीर्घ सह' के नियमानुसार रण्ण और आरक्खिय की संधि होकर 'रण्णारक्खिय' हो जाता है। यद्यपि व्याकरण की इस प्रक्रिया के अनुसार रण्णारक्खिय का अर्थ राजरक्षक भी हो सकता है, किन्तु यहाँ ग्राम तथा सीमा के साथ इसका प्रयोग होने से 'अरण्यरक्षक' अर्थ ही अधिक संगत है। परस्पर पाद-आमर्जन-प्रमार्जनादि का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइजइ एवं तइयउद्देसगगमेणं णेयव्वं जाव जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अण्णमण्णंस्स सीसदुवारियं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ॥४९-१०४॥ .. कठिन शब्दार्थ - अण्णमण्णस्स - अन्योन्य का - परस्पर एक दूसरे का। .. भावार्थ - ४९-१०४. जो भिक्षु आपस में एक दूसरे के पांवों का एक बार या अनेक बार आमर्जन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार तीसरे उद्देशक के (सूत्र १६ से ७१ तक के) समान पूरा आलापक जान लेना चाहिए यावत् जो भिक्षु आपस में एक दूसरे का ग्रामानुग्राम विहार करते समय मस्तक ढांकता है या ढांकने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) - विवेचन - तृतीय उद्देशक में सूत्र सं. १६-७१ में भिक्षु द्वारा स्व-पाद-प्रमार्जन, स्वकाय-प्रमार्जन आदि किया जाना दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसी प्रकार उपर्युक्त (सूत्र सं. ४९-१०४) सूत्रों में भिक्षु द्वारा परस्पर एक दूसरे के पाद-प्रमार्जन, कायप्रमार्जन आदि को प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है। आमर्जन, प्रमार्जन आदि जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है, वे प्रदर्शनात्मक होने के कारण दोष युक्त हैं, संयम मूलक साधना में प्रत्यवाय - विघ्न रूप हैं। इसीलिए वे वर्जित हैं, प्रायश्चित्त योग्य है। भिक्षु तो सहज रूप में आत्मस्थ होता है, आत्मरमणशील होता है। शारीरिक सज्जा का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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