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________________ प्रथम अध्ययन - मृगापुत्र के रूप में जन्म कण्णंतरेसु-कर्ण छिद्रों में, अच्छिंतरेसु- नेत्र छिद्रों में, णक्कंतरेसु - नासिका के छिद्रों में, धमणिअंतरेसु - धमनी के मध्य में, परिसवमाणीओ - परिस्राव करती हुई। - भावार्थ - तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, तांत-मन से दुःखित, परितांत-शारीरिक और मानसिक खेद से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते हुए विवशता के कारण अत्यंत दुःख के साथ उस गर्भ को धारण करने लगी। गर्भगत उस बालक की आठ नाडियाँ अन्दर की ओर बह रही थी और आठ नाडियाँ बाहर की ओर बह रही थी उनमें प्रथम की आठ नाडियों से पूय-पीब बह रहा था और शेष आठ नाडियों से रुधिर बह रहा था। इन सोलह नाडियों में से दो नाडियां कर्ण छिद्रों में, दो-दो नाडियाँ नेत्र छिद्रों में, दो दो नाडियां नासिका छिद्रों में तथा दो दो धमनियों से बार बार पीव व. रुधिर बहा रही थी। . . . तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्स चेव अग्गिए णामं वाही पाउन्भूए, जे णं से दारए आहारेड़ से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमइ, तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेइ॥३३॥ कठिन शब्दार्थ - अग्गिए णाम - अग्निक-भस्मक नामक, वाही - व्याधि-रोग विशेष, विद्धंसमागच्छइ - नाश को प्राप्त हो जाता है, पूयत्ताए - पूय (पीब) रूप में, सोणियत्ताएशोणित रूप में, परिणमइ - परिणमन हो जाता है। भावार्थ - उस बालक को गर्भ में ही अग्निक-भस्मक नाम की व्याधि उत्पन्न हो गई थी जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता वह शीघ्र ही भस्म-नष्ट हो जाता था तथा तत्काल ही वह पूंय और शोणित (रक्त) के रूप में परिणत हो जाता था। तदनन्तर वह बालक उस पूय और शोणित को भी खा जाता था। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मृगापुत्र की गर्भगत अवस्था का वर्णन किया गया है। कर्मों की गति विचित्र है। अशुभ पाप कर्मों का उदय कैसा भयंकर होता है, यह जानने के लिये मृगापुत्र का यह वर्णन काफी है।। मृगापुत्र के रूप में जन्म तए णं सा मियादेवी अण्णया कयाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया जाइअंधे जाव आगिइमेत्ते। तए णं सा मियादेवी तं दारगं हुंडं अंधारूवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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