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________________ ३२० विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवज्जइ। तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहि सत्तेहिं संजमेइ॥२३३॥ कठिन शब्दार्थ - आलित्ते - जल रहा है, पलित्ते - खूब जल रहा है, गाहावई - गाथापति (सेठ), अगारंसि - घर में, झियायमाणंसि - आग लगने पर, भंडे - वस्तु, अप्पभारे - भार (वजन) में हल्की, मोल्लगुरुए - मूल्य में भारी यानी बहुमूल्य, आयाए - स्वयं, खेमाए-क्षेम के लिए, णिस्सेसाए - निःश्रेयस यानी कल्याण के लिये, संसारवोच्छेयकरोसंसार का नाश करने वाली, सयमेव - स्वयं, पव्वावियं - दीक्षा लेना, मुंडावियं - मुण्डित होना, सेहावियं - प्रतिलेखना आदि क्रियाओं को ग्रहण करना, सिक्खावियं - सूत्र अर्थ सीखना, आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण- करण-जायामायावत्तियं - आचार, गोचरी, ' विनय, विनय का फल, चरण सत्तरी, करणसत्तरी, संयम की यात्रा, आहार आदि की मात्रा (परिमाण) आदि, धम्ममाइक्खियं - धर्म को धारण करना, गंतव्वं - ईर्या समिति से चलना चाहिये, चिट्ठियव्वं - निर्दोप पृथ्वी पर ठहरना चाहिये, णिसीयव्वं - जगह को पूंज कर बैठना चाहिये, तुयट्टियव्वं - यतना पूर्वक सोना चाहिये, भुंजियव्वं- निर्दोष आहार करना चाहिये, भासियव्वं- हितमित प्रिय वचन बोलना चाहिये, धम्मियं उवएसं- धर्मोपदेश को। भावार्थ - इसके पश्चात्. सुबाहुकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आकर विनयपूर्वक उन्हें वंदना नमस्कार करके अर्ज किया कि हे भगवन्! यह संसार जन्म जरा मरण रूप अग्नि से जल रहा है। जैसे किसी घर में आग लगने पर उसका स्वामी सार वस्तुओं को बाहर निकालता है और यह विचार करता है कि ये वस्तुएं आगामी काल में मुझे सुखदायक होंगी। इसी प्रकार यह मेरी आत्मा भी एक उपकरण है। यदि मैं अपनी आत्मा को जलते हुए संसार से निकालूंगा तो यह आठ कर्मों का विनाश करके मोक्षगामी होगी। इसलिए हे भगवन्! मैं आप स्वयं के पास दीक्षा लेना, मुण्डित होना, सूत्रार्थ सीखना तथा साधु संबंधी सारी क्रियाएं रूप धर्म को धारण करना चाहता हूँ। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुबाहुकुमार को स्वयमेव दीक्षा दी, स्वयमेव मुण्डित किया और स्वयमेव साधु आचार संबंधी शिक्षा दी कि चलना, खड़े रहना, बैठना, सोना, बोलना, आहार करना आदि सारी क्रियाएं यतनापूर्वक करनी चाहिए। प्राण, भूत, जीव, सत्व की रक्षा करते हुए संयम का पालन करना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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