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________________ प्रथम अध्ययन - राजा द्वारा स्वप्न फल कथन - २२१ ........................................................... वयह त्ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता अदीणसत्तुएणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता अतुरियमचवलगइए जेणेव सय-सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ॥१७६॥ कठिन शब्दार्थ - करयलपरिग्गहियं - हाथ जोड़ कर, सिरसावत्तं - मस्तक का आवर्तन करती हुई, एवमेयं - यह इसी प्रकार है, तहमेयं - यह तथ्य है, अवितहमेयं - यह अवितथ यानी सत्य है, असंदिद्धमेयं - यह निःसंदेह है, इच्छियमेयं - यह इच्छित-इष्ट है, पडिच्छियमेयं- यह प्रतीच्छित-अभीष्ट है, पडिच्छइ - ग्रहण किया, अतुरियमचवलगइए - शीघ्रता और चपलता रहित-मंद मंद गति से। . - भावार्थ - तब वह धारिणी रानी अदीनशत्रु राजा से इस अर्थ को सुन कर और हृदय में " धारण करके हृष्ट तुष्ट यावत् प्रसन्नचित वाली होकर हाथ जोड़ कर दस नखों से अर्थात् दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से मस्तक का आर्वतन करती हुई मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहने लगी कि-हे देवानुप्रिय! यह इसी प्रकार है, यह तथ्य है, यह अवितथ यानी सत्य है, यह निःसंदेह है यानी इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। हे देवानुप्रिय! यह इच्छित-इष्ट है, प्रतीच्छितअभीष्ट है, इच्छित-प्रतीच्छित यानी इष्ट-अभीष्ट है। हे स्वामिन्! जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा। इस प्रकार रानी ने उस स्वप्न के अर्थ को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया, ग्रहण करके अदीनशत्रु राजा के द्वारा आज्ञा मिलने पर रानी नानामणियों और रत्नों से विचित्र भद्रासन से उठी, उठ कर शीघ्रला और चपलता रहित-मंद मंद गति से जहाँ अपनी शय्या थी वहाँ आ गई। तेणेव उवामच्छित्ता सयणिज्जसि णिसीयइ, णिसीइत्ता एवं वयासी-मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे. अण्णेहिं पावसुविणेहिं पडिहम्मिस्सइ त्ति कट्ट देवगुरुजण-संबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविण जागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ।।१८०॥ कठिन शब्दार्थ - पावसुविणेहिं - पाप स्वप्नों के द्वारा, पड़िहम्मिस्सइ - नष्ट हो जाय, देवगुरुजणसंबद्धाहिं - देव गुरु जन संबंधी, पसत्थाहिं - प्रशस्त, मंगल्लाहिं - मांगलिक, धम्मियाहिं कहाहिं - धार्मिक कथाओं से, सुविण जागरियं - अपने स्वप्न के फल को बनाये रखने के लिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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