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________________ १६० ... विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... कठिन शब्दार्थ - अहापज्जत्तं - यथेष्ट, समुदाणं - समुदान-गृह समुदाय से प्राप्त भिक्षा, अट्ठिचम्मावणद्धं - अस्थि चौवनद्धं-अतिकृश होने के कारण जिसका चर्म-चमड़ा हड्डियों से संलग्न है-चिपटा हुआ है, किडिकिडियाभूयं - किटिकिटिकाभूतं-जो किटिकिटिका शब्द कर रहा है, णीलसाडगणियत्थं - नील शाटक निवसित-नीलशाटक धोती धारण किये हुए, मच्छकंटएणं - मत्स्य कंटक के, गलए - गल-कण्ठ में, अणुलग्गएणं - लगे होने के कारण, कट्ठाई - कष्टात्मक, कलुणाई - करुणाजनक, वीसराई - विस्वर-दीनता पूर्ण वचन, . उक्कूवमाणं - बोलते हुए को, पूयकवले - पीब के कवलों-कुल्लों का, रुहिरकवले - रुधिर कवलों, किमिकवले - कृमिकवलों-कीड़ों के कुल्लों का, वममाणं - वमन करते हुए को, महाणसिए - महानसिक-रसोइया। . भावार्थ - उस काल और उस समय शौरिकावतंसक नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पर्दापण हुआ यावत् परिषद् और राजा वापिस चले गये। उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी यावत् शौरिकपुर नगर में उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट आहार लेकर नगर से बाहर निकलते हैं तथा मत्स्यबंधपाटक-मच्छीमारों के मुहल्ले के पास से निकलते हुए उन्होंने अत्यधिक विशाल नरसमुदाय के मध्य एक सूखे हुए, बुभूक्षित, निमांस और अस्तिचर्मावनद्ध-जिसका चर्म शरीर की हड्डियों से चिपटा हुआ, उठते बैठते समय जिसकी हड्डियाँ किटिकिटिका शब्द कर रही हैं, नीली शाटक वाले एवं गले में मत्स्यकंटक लग जाने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक और दीनतापूर्ण वचन बोलते हुए एक पुरुष को देखा जो कि पूयकवलों, रुधिरकक्लों और कृमि कवलों का वमन कर रहा था। उसको देख कर गौतम स्वामी के मन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए - 'अहो! यह पुरुष पूर्वकृत यावत् कर्मों से नरकतुल्य वेदना का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत कर रहा है।' इस प्रकार विचार कर अनगार गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावत् उसके पूर्व भव की पृच्छा करते हैं और प्रभु इस प्रकार पूर्व भव का प्रतिपादन करते हैं - 'हे गौतम! उस काल और उस समय इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के अंतर्गत भारत वर्ष में नंदिपुर नाम का एक नगर था। वहाँ के राजा का नाम मित्र था। उस मित्र राजा का एक श्रीयक (श्रीद) नाम का रसोइया था जो कि अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानंद (बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला) था।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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