SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .... . छठा अध्ययन - गौतम स्वामी की जिज्ञासा १२५ ........................................................... लोह कलशों से, तंबभरिएहिं - ताम्र से परिपूर्ण, तउयभरिएहिं - त्रपु-रांगा से परिपूर्ण, सीसगभरिएहिं - सीसक पूर्ण, कलकलभरिएहिं - चूर्णक आदि से मिश्रित जल से परिपूर्ण अथवा कलकल शब्द करते हुए गर्म पानी से परिपूर्ण, खारतेल्लभरिएहिं - क्षारयुक्त तैल से परिपूर्ण, संडासएणं - संडासी से, पिणद्धंति - पहनाते हैं। भावार्थ - उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का मथुरा नगरी के बाहर भंडीर उद्यान में पधारना हुआ। परिषद् (जनता) तथा राजा प्रभु के दर्शनार्थ नगर से निकले यावत् वापिस चले गये। . उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतमस्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को तथा उन पुरुषों के मध्यगत यावत् नरनारियों से घिरे हुए एक पुरुष को देखा। ___तदनन्तर राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर अर्थात् जहां अनेक मार्ग मिलते हों ऐसे स्थान पर अग्नि के समान तप्त लोहमय सिंहासन पर बैठा देते हैं। तत्पश्चात् पुरुषों के मध्यगत उस पुरुष को अनेक तपे हुए लोह कलशों से जो कि अग्नि के समान देदीप्यमान है तथा कितनेक ताम्र से परिपूर्ण, त्रपु (रांगा) से पूर्ण, सीसकपूर्ण और चूर्णक आदि से मिश्रित जल से परिपूर्ण अथवा कलकल शब्द करते हुए गर्म पानी से परिपूर्ण, क्षार युक्त तैल से परिपूर्ण तप्तलोह कलशों के द्वारा महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करते हैं तदनन्तर अग्नि के समान देद्रीप्यमान तप्त लोहमय हार को लोहमय संडासी ग्रहण करके पहनाते हैं। ___ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने से लेकर गौतमस्वामी के नगरी में जाने और वहां के राजमार्ग में हाथी, अश्व आदि तथा नरनारियों से घिरे हुए पुरुष को देखने आदि के विषय में वर्णन किया गया है जो प्रथम अध्ययन के समान पूर्ववत् समझ लेना चाहिये। जो विशेषता है वह इस प्रकार है - __ मथुरा नगरी के राजमार्ग में उस पुरुष को श्रीदाम नरेश के अनुचर एक चत्वर में ले जाकर अग्नि के समान लालवर्ण के तपे हुए एक लोहे के सिंहासन पर बैठा देते हैं और अग्नि के समान तपे हुए लोहे के कलशों में पिघला हुआ तांबा, सीसा और चूर्णादि मिश्रित संतप्त जल एवं संतप्त क्षारयुक्त तैल आदि को भरकर उनसे उस पुरुष का अभिषेक करते हैं यानी उस पर गिराते हैं तथा अग्नि के समान तपे हुए हार आदि पहनाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy