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________________ ८४ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अभिलषित अर्थ-धनादि और भोग-इन्द्रिय विषयों से संपादित आनंद की प्राप्ति होने से जिसका दोहद संपन्न हो गया है। भावार्थ - तदनन्तर विजय नामक चोर सेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कंदश्री को देख . कर इस प्रकार कहा - 'हे सुभगे! तुम उदास हुई आर्तध्यान क्यों कर रही हो?' स्कंदश्री ने ." विजय के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा कि 'स्वामिन्! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं अब मुझे यह दोहद उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्ण न होने पर कर्त्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित हुई यावत् मैं आर्तध्यान कर रही हूं।' तब विजय चोर सेनापति अपनी स्कंदश्री भार्या के पास से इस बात को सुन कर तथा हृदय में धारण कर स्कंदश्री भार्या को इस प्रकार. कहने लगा - 'हे देवानुप्रिये! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।' इस प्रकार से उस बात को स्वीकार करता है। अर्थात् विजय ने स्कंदश्री के दोहद को पूर्ण कर देने की स्वीकृति दी। तदनन्तर वह स्कंदश्री भार्या विजय चोर सेनापति के द्वारा उसे आज्ञा मिल जाने पर बहुत . प्रसन्न हुई और अनेक मित्रों की यावत् अन्य बहुत-सी चोर महिलाओं के साथ संपरिवृत हुई, स्नान करके यावत् संपूर्ण अलंकारों से विभूषित हो कर विपुल अशन पानादि तथा सुरा आदि का आस्वादन विस्वादन आदि करने लगी। इस प्रकार सब के साथ भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर पुरुषवेश से युक्त हो तथा दृढ बंधनों से बंधे हुए लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण करके यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। __तब वह स्कंदश्री दोहद के संपूर्ण होने, सम्मानित होने, विनीत होने, व्युच्छिन्न-निरन्तर इच्छा आसक्ति रहित होने अथवा संपन्न होने पर अपने उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। विवेचन - पति देव द्वारा अपने दोहद की यथेच्छ पूर्ति के लिये पूरी पूरी स्वतंत्रता देने और दोहद की पूर्ति हो जाने पर स्कंदश्री अपने गर्भ का यथाविधि बड़े आनंद-और उल्लास के साथ गर्भ का पालन पोषण करने लगी। अभग्नसेन का जन्म एवं लालन-पालन तए णं सा खंदसिरी चोरसेणावइणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स महया इहीसक्कारसमुदएणं दसरत्तं ठिइवडियं करेइ। तए णं से विजय चोरसेणावई तस्स दारगस्स एक्कारसमे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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