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________________ मन:पर्यवज्ञान का विषय ८१ ******************************************* विशेष - उत्कृष्ट ऋजुमति और विपुलमति, ये दोनों आनुगामिक होते हैं, अनानुगामिक नहीं। मध्यगत होते हैं, अन्तगत नहीं। सम्बद्ध होते हैं, असम्बद्ध नहीं। जघन्य ऋजुमति सब प्रकार का संभव है। ऋजुमति वर्द्धमान होकर विपुलमति हो सकता है, पर विपुलमति हीयमान होकर ऋजुमति नहीं हो सकता। ___ऋजुमति, केवल ज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व प्रतिपतित हो सकता है। ऋजुमति से और साधुत्व से गिर कर जीव, नरक निगोद में भी जा सकता है (भगवती २४, २१) परन्तु विपुलमति नियम से केवलज्ञान की उत्पत्ति के एक क्षण पूर्व तक विद्यमान रहता ही है। मन:पर्यायज्ञान की स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है (प्रज्ञापना १८, १०)। इति मनःपर्यायज्ञान का भेद द्वार समाप्त। अब सूत्रकार 'मनःपर्यायज्ञान से कितने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञान होता है' यह बतलाने वाला तीसरा 'विषय द्वार' आरम्भ करते हैं - . मनःपर्यवज्ञान का विषय - तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा - १. दव्वओ, २. खित्तओ, ३. कालओ, ४. भावओ। अर्थ - उस मनःपर्याय ज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का है। वह इस प्रकार है - १. द्रव्य से २. क्षेत्र से ३. काल से और ४. भाव से। १. तत्थ दव्वओ णं उजुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियंतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ। ___ अर्थ - वहाँ १. द्रव्य से ऋजुमति अनन्त प्रदेशी, अनंत स्कन्ध जानते देखते हैं, उन्हीं को विपुलमति अभ्यधिकता से, विपुलता से, विशुद्धता से, वितिमिरता से जानते देखते हैं। क्वेिचन - जिन मन:पर्यव ज्ञानियों को जघन्य ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान होता है, वे अपने जघन्य ऋजुमति मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा संज्ञी जीव के मनरूप में परिणत मनोवर्गणा के अनन्त प्रदेशी अनन्त स्कन्धों को जानते हैं। वे अनन्त स्कन्ध. उत्कष्ट ऋजमति से जितने स्कन्ध देखे जा सकते हैं, उनकी अपेक्षां अनन्तवें भाग समझना चाहिए तथा जिन मनःपर्यवज्ञानियों को उत्कृष्ट ऋजुमति मनःपर्याय ज्ञान हैं, वे भी अपने ऋजुमति मन:पर्याय ज्ञान के द्वारा मन रूप में परिणत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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