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________________ मनःपर्यवज्ञान का स्वामी ওও * * * * * -*-*-*-*- * ************ * * * * * * * * * * * * * है, तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है या अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? उत्तर - गौतम! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज मनुष्यों को उत्पन्न होता है अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता। . विवेचन - पर्याप्त-अपर्याप्त - १. आहार २. शरीर ३. इन्द्रिय ४. श्वासोच्छ्वास ५. भाषा और ६. मन, इन छहों को ग्रहण आदि करने की जिन्होंने पूर्ण शक्ति प्राप्त कर ली, उन्हें यहाँ 'पर्याप्त' कहा है तथा जिन्होंने पूरी शक्ति प्राप्त नहीं की या नहीं करेंगे, उन्हें 'अपर्याप्त' कहा है। जइ पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, किं सम्मुदिट्ठि-पज्जत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कं तियमणुस्साणं, मिच्छदिट्ठि-पजत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, सम्मामिच्छदिट्ठि-पज्जत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? गोयमा! सम्मदिट्ठि-पजत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं णो मिच्छदिट्ठि पज्जत्तगसंखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णोसम्मामिच्छदिट्ठिपज्जत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं। ____ अर्थ - प्रश्न - यदि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को ही मन:पर्याय ज्ञान उत्पन्न होता है, तो क्या सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है या मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है या मिश्रदृष्टि पर्याप्त मनुष्यों को उत्पन्न होता है? - उत्तर - गौतम! सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले गर्भज मनुष्यों को भी नहीं हो सकता। (क्योंकि उसमें निश्चय ही सर्व-विरत साधुत्व नहीं हो सकता।) - जइ सम्मदिट्ठिपज्जत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं किं संजय-सम्मदिट्ठिपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, असंजय-सम्मदिट्ठि-पजत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, संजयासंजय-सम्मदिट्ठि-पज्जत्तग संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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