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________________ ज्ञान के भेद ४१ *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* *********************************************************************** अर्थ - ज्ञान पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा - १. आभिनिबोधिक ज्ञान २. श्रुत ज्ञान ३. अवधि ज्ञान ४. मन:पर्याय ज्ञान और ५. केवलज्ञान। __ विवेचन - ज्ञान की परिभाषा - १. द्रव्य विशेष, गुण विशेष या पर्याय विशेष को जानना 'ज्ञान' है। २. अथवा जिससे द्रव्य विशेष, गुण विशेष या पर्याय विशेष जाना जाये, वह 'ज्ञान' है। ३. अथवा जिसमें द्रव्य विशेष, गुण विशेष या पर्याय विशेष जाना जाये, वह 'ज्ञान' है। पहली परिभाषा 'पर्याय' नय से, दूसरी परिभाषा 'गुण' नय से और तीसरी परिभाषा 'द्रव्य' नय से है। १. 'जानना' यह 'उपयोग रूप' ज्ञान है। २. जिससे जाना जाता है, वह 'लब्धि रूप' ज्ञान है तथा ३. जिसमें जाना जाता है, वह उपयोगरूप ज्ञान और लब्धि रूप ज्ञान का आधार 'जीव द्रव्य' है। १. आभिनिबोधिक ज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण से और मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से नियतरूप से रूपी और अरूपी द्रव्यों को जानना 'आभिनिबोधिक' ज्ञान है। २. श्रुत ज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण से तथा श्रतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से शब्द या अर्थ को (रूपी अरूपी पदार्थ को)मति ज्ञान से ग्रहण कर या स्मरण कर, उसमें जो परस्पर वाच्य-वाचक सम्बन्ध रहा हुआ है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक, शब्दोल्लेख सहित, शब्द व अर्थ को (रूपी-अरूपी पदार्थ को) जानना-'श्रुतज्ञान' है। सामान्यतया गुरु के शब्द सुनने से या ग्रंथ पढ़ने से या उनमें उपयोग लगाने से जो ज्ञान होता है, उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। क्योंकि इस ज्ञान में श्रुत-श्रवण-सुनना मुख्य है। ३. अवधि ज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण के बिना केवल अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान आत्मा से, रूपी पुद्गल द्रव्य को जानना-'अवधिज्ञान' है। ___४. मनःपर्याय ज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण के बिना ही मन:पर्याय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान आत्मा से, रूपी द्रव्य मन में परिणत । जानना-'मनःपर्याय' ज्ञान है। ५. केवलज्ञान - द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के उपकरण के बिना ही ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से मात्र ज्ञान आत्मा से, रूपी अरूपी द्रव्यों को सम्पूर्णतया जानना- केवलज्ञान' है। भेद का कारण - जैसे सूर्य के प्रकाश में स्वभाव से ही भेद नहीं है। वह जब निरभ्र ग्रीष्म ऋतु में मेघ से सर्वथा मुक्त होता है, तब समान रूप से सर्वत्र सब वस्तुओं को प्रकाशित करता है, १. परन्तु जब उस पर मेघ रूप आवरण आ जाता है, तब उसका प्रकाश ढंक जाता है, किन्तु सर्वथा नहीं ढकता। मन्द प्रकाश अवश्य रहता है। वह मन्द प्रकाश भी घर में एक-सा प्रवेश नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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