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________________ परिषद् लक्षण ३९ **** ****** ********************************************************************* अब क्रमशः इन तीनों परिषदों के लक्षण बतलाते हैं१. जाणिया जहाखीरमिव जहा हंसा, जे घुटुंति इह गुरुगुणसमिद्धा। दोसे य विवजंती, तं जाणसु जाणियं परिसं॥५२॥ पहली जानकार परिषद् के लक्षण इस प्रकार हैं-जिस प्रकार जातिवान् श्रेष्ठ हंस, जल मिश्रित दूध में से, मात्र दूध ग्रहण करता है और जल को त्याग देता है, उसी प्रकार आचार्य आदि के प्रवचन तथा जीवनगत सद्गुणों को जीवन में ग्रहण कर, गुण समृद्ध बनती है और दोषों का त्याग करती है, उसे 'जानकार परिषद्' समझना चाहिए। भावार्थ - जो जैन धर्म मान्य षड् द्रव्य, नव तत्त्व आदि के तथा परमत के जानकार हैं, जिनमत पर श्रद्धा रखते हैं, सद्गुण और दुर्गुण के पारखी हैं, परन्तु दूसरों के मात्र सद्गुणों की प्रशंसा करते हैं और जीवन में उतारते हैं किन्तु दुर्गुणों की अनावश्यक, निरर्थक निन्दा नहीं करते, न जीवन में दुर्गुणों को स्थान देते हैं, वे जानकार परिषद् में आते हैं। ऐसे लोगों को समझाना अत्यन्त सुगम होता है। इन्हें 'पात्र परिषद्' के अन्तर्गत समझना चाहिए। २. अजाणिया जहाजा होइ पगइमहुरा, मियछावयसीहकुक्कुडयभूआ। रयणमिव असंठविया, अजाणिया सा भवे परिसा॥५३॥ दूसरी अनजान परिषद् के लक्षण इस प्रकार हैं-जो प्रकृति से मधुर हो-अन्यमति, नास्तिक या . अनार्य होकर भी स्वभाव से सरल एवं नम्र हो, मृग के बच्चे, सिंह के बच्चे या कुकड़े के बच्चे के समान हों-जैन कुल के होकर भी जैनधर्म से अनजान हो, असंस्थापित-असंस्कृत, अघटित रत्न की भाँति जिसके गुण अब तक छुपे पड़े हों, वह 'अजानकार परिषद्' होती है। . भावार्थ - १. चाहे व्यक्ति अन्यमत का या नास्तिक हो, पर यदि वह सरल अन्तःकरण वाला हो, सत्य मत के सामने आने पर अपने असत् मत का आग्रह करने वाला नहीं हो, सत्य का समादर करने वाला हो, तो उसे समझना सरल है। इसी प्रकार यदि कोई शिकारी, कसाई आदि अनार्य, पापाचरण करने वाला हो, पर वे भी स्वभाव से सरल हो, तो उन्हें समझना सरल है। २. अथवा जो मृग के बच्चे के समान कभी बहक सकते हैं, परन्तु अब तक किसी के बहकावे में नहीं आये हैं, ऐसे जैनकुल के मन्दबुद्धि बच्चों को भी समझाना सरल है। - ३. अथवा जो कुकड़े के बच्चे या सिंह के बच्चे के समान युद्ध-धर्मी और क्रूर बन सकते हैं, पर अब तक पापमति और पापाचारी नहीं बने हैं ऐसे अन्यमति के या नास्तिकों के या नीच जाति के बालकों को, बाल्यावस्था के रहते हुए अच्छे संस्कार देना सरल है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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