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________________ स्थविर आवलिका १७ । *-*-*-*-*-*-*-*-*- *-*-*-* - * वर-कणग-तविय चंपग, विमउल-वर-कमल-गब्भ-सरिवण्णे। भविय-जण-हियय-दइए, दया-गुण-विसारए धीरे॥४३॥ इसके पश्चात् श्री भूतदिन्न को हम वन्दना करते हैं। ये तप और संयम में नित्य ही निर्वेद रहित (रुचि सहित) थे। पण्डित जनों में सम्माननीय थे और संयम की विधि के जानकार थे।। इनके शरीर का वर्ण, श्रेष्ठ तपाये हुए सोने के सदृश, पीले चम्पक पुष्प के सदृश और विकसित उत्तम कमल के गर्भ के सदृश-स्वर्ण समान था। ये भव्यजनों के हृदयवल्लभ थे। दयागुण विशारद थे (सभी जीवों के प्रति दया की विधि का विधान करने में अतीव कुशल थे) धीर थे। अड्ढ भरह-प्पहाणे, बहुविह-सज्झाय-सुमुणियपहाणे। अणुओगिय-वर-वसभे, नाइल-कुल-वंस-नंदीकरे॥४४॥ जग-भूय-हियप्पगब्भे, वन्देऽहं भूयदिन्नमायरिए। भव-भय-वुच्छेय-करे, सीसे नागजुणरिसीणं॥४५॥ आप अर्द्ध भरत में प्रधान थे (उस काल की अपेक्षा से समस्त आधे भरत में आप युगप्रधान थे), आचारांगादि सूत्रों का बहुविध स्वाध्याय के अच्छे जानकारों में भी आप प्रधान थे। वरवृषभों को (मारवाड़ के धोरियों के समान संयम-भार को वहने में समर्थ संतों को) सेवादि में नियुक्त करने वाले थे। नागेन्द्र कुल-वंश के आनंद उत्पन्न करने वाले थे। (नागेन्द्र कुल में उत्पन्न हुए थे)। ___आप, संसारी जीवों को अनेक प्रकार से हितोपदेश देने में कुशल थे। सदुपदेशादि से भवभ्रमण के भय का विच्छेद करते थे। नागार्जुन ऋषि के शिष्य श्री भूतदिन्न आचार्य को मैं वन्दना करता हूँ। सुमुणिय-णिच्चाणिच्चं, सुमुणिय-सुत्तत्थधारयं वंदे। सब्भावुब्भावणया, तत्थं लोहिच्चणामाणं॥ ४६॥ इनके पश्चात् २५ श्री लोहित्य हुए। ये 'द्रव्य किस प्रकार नित्य हैं और किस प्रकार अनित्य हैं"-इसके बहुत अच्छे जानकार थे-अर्थात् न्याय विषय के प्रकाण्ड पण्डित थे। जो सूत्रार्थ को धारण किये थे (उन्हें भलीभांति समझे हुए थे)। सद्भाव की उद्भावना में तथ्य थे (जो पदार्थ जैसे हैं, उनकी प्ररूपणा इस प्रकार करते थे कि उनके वचन में कभी सदोषता या विसंवाद-विरोध नहीं आता था)। ऐसे लोहित्य नामक आचार्य को मैं वन्दना करता हूँ। अत्य-महत्थक्खाणिं, ससमण-वक्खाण-कहण-निव्वाणिं। पयईए महुरवाणिं, पयओ पणमामि दूसगणिं॥४७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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