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________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - दृष्टिवाद २६३ - इच्चेइयाइं बावीसं सुत्ताई छिण्णच्छेयणइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताइं अच्छिण्णच्छेयणइयाणि आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइयाइं बावीसं सुत्ताइं तिगणइयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाणि ससमयसुत्त-परिवाडीए, एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीई सुत्ताइं . भवंतित्ति मक्खायं। सेत्तं सुत्ताई। . अर्थ - बावीस सूत्र, स्वसमय सूत्र की परिपाटी में छिन्न छेद नय वाले हैं। ये बावीस सूत्र आजीविक सूत्र की परिपाटी में अछिन्नछेद नय वाले हैं। ये बावीस सूत्र त्रैराशिक सूत्र की परिपाटी में तीन नय वाले हैं, ये बावीस सूत्र स्वसमय सूत्र की परिपाटी से चार नय वाले हैं। यों ये बावीस ही सूत्र सब मिलाकर ८८ सूत्र हो जाते हैं, ऐसा कहा है। विवेचन - जो नय प्रत्येक सूत्र को अन्य सूत्रों से भिन्न स्वीकार करे, संबंधित स्वीकार नहीं करे, उसे 'छिन्नच्छेदनय' कहते हैं। जो नय प्रत्येक सूत्र को अन्य सूत्रों से संबंधित स्वीकार करे, भिन्न स्वीकार नहीं करे, उसे-'अछिन्नच्छेदनय' कहते हैं। जैनमतानुसार जब इन बावीस सूत्रों की व्याख्या की जाती है, तो प्रत्येक सूत्र में जितने शब्द होते हैं, उन्हीं शब्दों के आश्रय से उस सूत्र की व्याख्या की जाती है, परन्तु उस सूत्र की व्याख्या में इधर-उधर के सूत्रों के शब्दों आदि का संबंध जोड़ कर व्याख्या नहीं की जाती और जब गोशालक मतानुसार व्याख्या की जाती है, तब प्रत्येक सूत्र में जितने शब्द हैं, उनमें अन्य सूत्रों के शब्द आदि का संबंध जोड़कर व्याख्या की जाती है, उन्हीं शब्दों के आश्रय से व्याख्या नहीं की जाती। ____ जब जैनमतानुसार इन सूत्रों की व्याख्या की जाती है, तो पहले बताये हुए जैनमत अभिमत - १. संग्रह २. व्यवहार ३. ऋजुसूत्र और ४. शब्द, इन चार नयों से व्याख्या की जाती है और जब गोशालक मतानुसार इन सूत्रों की व्याख्या की जाती है, तो पहले बताए हुए गोशालक मत अभिमत - १. द्रव्यार्थिक २. पर्यायार्थिक और ३. द्रव्य-पर्यायार्थिक-इन तीन नयों के अनुसार व्याख्या की जाती है। इस प्रकार १. छिन्नच्छेदनय २. अच्छिन्नच्छेदनय ३. तीन नय और ४. चार नय - यों चार प्रकार से इन बावीस सूत्रों की व्याख्या करने पर, ये बावीस सूत्र ही २२४४-८८ सूत्र हो जाते हैं। यह सूत्र है। से किं तं पुव्वगए? पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा - १. उप्पायपुव्वं २. अग्गाणीयं ३. वीरियं ४. अत्थिणत्थिप्पवायं ५. णाणप्पवायं ६. सच्चप्पवायं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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