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________________ २०० नन्दी सूत्र मतिज्ञान का विषय तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ; भावओ। अर्थ - उस आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का है। वह इस प्रकार है१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, और ४. भाव से। तत्थ दव्वओ णं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ, ण पासइ। अर्थ - द्रव्य से आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सर्व द्रव्यों को जानता है, देखता नहीं है। . विवेचन - जो आभिनिबोधिक ज्ञानी हैं, वे आदेश से अर्थात् जातिस्मरणादि से या गुरुदेव का वचन श्रवण, शास्त्र-पठन आदि से आगमिक श्रुतज्ञान जाने हुए हैं, वे उस श्रुतज्ञान से सम्बन्धितश्रुतनिश्रित मतिज्ञान से छहों द्रव्यों को जाति रूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। जैसे द्रव्य जातियाँ छह हैं-१. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश, ४. जीव, ५. पुद्गल और ६. काल। कोई विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे-१. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश-ये तीन द्रव्य, द्रव्य से एक-एक है। शेष तीन द्रव्य, द्रव्य से अनन्त-अनन्त हैं। धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीन स्कन्ध से एक-एक हैं तथा जीव और पुद्गल-ये दो स्कंध से अनन्त हैं। धर्म और अधर्म-ये दोनों प्रदेश से असंख्य-असंख्य प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी हैं। लोकाकाश असंख्य प्रदेशी हैं, अलोक-आकाश अनन्त प्रदेशी हैं। जीव प्रत्येक असंख्य प्रदेशी हैं। पुद्गल अप्रदेशी, संख्य प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी हैं, काल अप्रदेशी है, इत्यादि। परन्तु केवली के समान सम्पूर्ण विशेष प्रकार से देखते नहीं है। खेत्तओ णं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, ण पासइ। अर्थ - क्षेत्र से आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सभी क्षेत्र को जानते हैं, देखते नहीं। विवेचन - जो आभिनिबोधिक ज्ञानी श्रुतज्ञान जानते हैं, वे श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से सर्व लोकाकाश और सर्व अलोकाकाश रूप सब क्षेत्र को, जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे आकाश स्कंध, आकाश देश, आकाश प्रदेश आदि। परन्तु सर्व-विशेष प्रकार से नहीं देखते हैं। वैसा मात्र केवली ही देख सकते हैं। कालओ णं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ, ण पासइ। अर्थ - काल से-आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से समस्त काल को जानते हैं, देखते नहीं। विवेचन - जो आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञान जानते हैं, वे उस श्रुत से निश्रित मतिज्ञान से, सर्व भूतकाल, सर्व वर्तमान काल और सर्व भविष्यकाल रूप सभी काल को जातिरूप सामान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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