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________________ १७६ नन्दी सूत्र पूछा। उन्होंने कहा - "हमारा वाचना का कार्य बहुत अच्छा चल रहा है। कृपा कर अब सदा के लिए हमारी वाचना का कार्य वज्र मुनि को सौंप दीजिये।" गुरु ने कहा - "तुम्हारा कहना ठीक है। वज्र मुनि के प्रति तुम्हारा विनय और सद्भाव अच्छा है। तुम लोगों को वज्र मुनि का महात्म्य बतलाने के लिये ही मैंने वाचना देने का कार्य वज्र मुनि को सौंपा था। वज्र मुनि ने यह सारा ज्ञान सुन कर ही प्राप्त किया है, किन्तु गुरुमुख से ग्रहण नहीं किया। गुरुमुख से ज्ञान ग्रहण किये बिना कोई भी वाचना गुरु नहीं हो सकता।" इसके बाद गुरु ने अपना सारा ज्ञान वज्र मुनि को सिखा दिया। __एक समय विहार करते हुए आचार्य दशपुर नगर में पधारे। उस समय अवन्ती नगरी में भद्रगुप्त आचार्य वृद्धावस्था के कारण स्थिरवास विराज रहे थे। आचार्य ने दो साधुओं के साथ वज्र मुनि को उनके पास भेजा। उनके पास रह कर वज्र मुनि ने विनयपूर्वक दस पूर्व का ज्ञान पढ़ा। आचार्य सिंहगिरि ने अपने पाट पर वज्रमुनि को बिठाया। इसके पश्चात् आचार्य अनशन करके स्वर्ग सिधार गये। ग्रामानुग्राम विहार कर धर्मोपदेश द्वारा वज्र मुनि, जनता का कल्याण करने लगे। अनेक भव्यात्माओं ने उनके पास दीक्षा ली। सुन्दर रूप, शास्त्रों का ज्ञान तथा विविध लब्धियों के कारण वज्र मुनि का प्रभाव दूर-दूर तक फैल गया। बहुत समय तक संयम का पालन कर वज्र मुनि देवलोक में पधारे। वज्र मुनि का जन्म विक्रम संवत् २६ में हुआ था और स्वर्गवास विक्रम संवत् ११४ में हुआ था। वज्र मुनि की आयु ८८ वर्ष की थी। वज्र स्वामी ने बचपन में भी माता के प्रेम की उपेक्षा कर संघ का बहुमान किया अर्थात् माता द्वारा दिये जाने वाले खिलौने आदि न लेकर संयम के चिह्न भूत रजोहरण को लिया ऐसा करने से माता का मोह भी दूर हो गया, जिससे उसने दीक्षा ली और आप स्वयं ने भी दीक्षा लेकर जिन शासन के प्रभाव को दूर-दूर तक फैलाय। यह वज्र स्वामी की पारिणामिकी बुद्धि थी। भूतकाल के जाति स्मरणाधारित अनुभवजन्य बुद्धि थी। १६. वृद्धों की बुद्धि (चलन आहत) एक राजा था। बह तरुण था। एक समय कुछ तरुण सेवकों ने मिल कर राजा से निवेदन किया - "देव! आप नवयुवक हैं। इसलिए आपको चाहिये कि नवयुवकों को ही आप अपनी सेवा में रखें। वे आपके सभी कार्य बड़ी योग्यतापूर्वक सम्पादित करेंगे। बूढ़े आदमियों के केश पक कर सफेद हो जाते हैं। उनका शरीर जीर्ण हो जाता है। वे लोग आपकी सेवा में रहते हुए शोभा नहीं देते।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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