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________________ १७० नन्दी सूत्र *-* -* ----- --- - --- गुरु की बात सुन कर तीनों मुनियों को ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो गया, विशेष कर सिंह गुफा में चातुर्मास करने वाले मुनि को। जब दूसरा चातुर्मास आया, तब उस मुनि ने कोशा वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी। गुरु ने आज्ञा नहीं दी, फिर भी वह वहाँ चातुर्मास करने के लिए चला गया। वेश्या के रूप लावण्य को देखकर उसका चित्त चलित हो गया। वह वेश्या से प्रार्थना करने लगा। वेश्या तो श्राविका बन चुकी थी। मुनि को सद्मार्ग पर लाने के लिए उसने कहा - "मुझे पाना है तो मुझे लाख मोहरें दो।" मुनि ने कहा - "हम तो भिक्षुक हैं। हमारे पास धन कहाँ?" वेश्या ने कहा - "नेपाल का राजा प्रत्येक साधु को एक रत्न-कम्बल देता है। उसका मूल्य एक लाख मोहर है। यदि तुम वहाँ जाओ और एक रत्न कम्बल लाकर मुझे दो तो मैं तुम्हारी इच्छापर्ति करूँगी। वेश्या की बात सन कर वह मनि नेपाल गया। वहाँ के राजा से रत्न कम्बल लेकर वापिस लौटा। मार्ग में अटवी में उसे कुछ चोर मिले। उन्होंने उससे रत्न-कम्बल छीन ली। वह बहुत निराश हुआ। वह दूसरी बार नेपाल गया। उसने राजा से आपबीती सुना कर दूसरी रत्नकम्बल की याचना की। राजा ने उसे दूसरी रत्न-कम्बल दे दी। अबकी बार उसने रत्न-कम्बल को बाँस की लकड़ी में डाल कर छिपा लिया। जंगल में उसे फिर चोर मिले। उसने कहा - "मैं तो भिक्षुक हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है।" उसके ऐसा कहने से चोर चले गये। मार्ग में भूख-प्यास के अनेक कष्टों को सहन करते हुए उस मुनि ने बड़ी सावधानी के साथ रत्न-कम्बल लाकर उस वेश्या को दी। रत्न-कम्बल लेकर वेश्या ने स्नान करके देह को पौंछ कर अशुचि में फेंक दी, जिससे वह खराब हो गई। यह देख कर मुनि ने कहा-"तुमने यह क्या किया? इसको यहाँ लाने में मुझे अनेक कष्ट उठाने पड़े हैं।" वेश्या ने कहा - "हे मुने! मैंने यह सब कार्य तुमको समझाने के लिए किया है। जिस प्रकार अशुचि में पड़ने से यह रत्न-कम्बल खराब हो गई है, उसी प्रकार काम-भोग रूपी कीचड़ में फँस कर तुम्हारी आत्मा भी मलिन हो जायेगी, पतित हो जायेगी। हे मुने! जरा विचार करो। इन विषय भोगों को किपाक फल के समान दुःखदायी समझ कर तुमने ठुकरा दिया था। अब वमन किये हुए कामभोगों को तुम फिर से स्वीकार करना चाहते हो। वमन किये हुए की इच्छा तो कौए और कुत्ते किया करते हैं मानव नहीं, आप तो मुनि हो। हे मुने! जरा सोचो, समझो और अपनी आत्मा को संभालो।" --- वेश्या का मार्मिक उपदेश सुन कर मुनि की गिरती हुई आत्मा पुनः संयम में स्थिर हो गई। ... मुनि ने उसी समय अपने पाप कार्य के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' दिया और कहा - ... स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः स एकोऽखिल साधुषु। युक्तं दुष्करदुष्कर-कारको गुरुणा जगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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