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________________ १५४ नन्दी सूत्र ******************************************************* * * * ************************ में भी बहुत तल्लीन रहने लगी। थोड़े ही समय में उसने चार घातीकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। कई वर्षों तक केवली पर्याय का पालन करके महासती पुष्पचूला* ने मोक्ष प्राप्त किया। पुष्पचूला को प्रतिबोध देने रूप पुष्पवती देवी की यह 'पारिणामिकी बुद्धि' थी। ५. उदितोदय राजा की रक्षा पुरिमताल नगर में उदितोदय राजा राज्य करता था। वह श्रावक था। उसकी रानी का नाम श्रीकान्ता था। उसकी धर्म पर विशेष रुचि थी। उसने श्राविका के व्रत अंगीकार किए थे। राजा और रानी आनन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत करते थे। एक समय वहाँ एक परिव्राजिका आई। वह अन्तःपुर में रानी के पास गई और अपने शुचिधर्म का उपदेश देने लगी। रानी ने उसका किसी प्रकार का आदर सत्कार नहीं किया। इससे वह परिव्राजिका कुपित हो गई। उसने रानी से बदला लेने का उपाय सोचा। वहाँ से निकल कर वह वाराणसी नगरी के राजा जितशत्रु के पास गई। परिव्राजिका ने उस राजा के सामने श्रीकान्सा रानी के रूप-लावण्य की बहुत प्रशंसा की। परिव्राजिका की बात सुन कर राजा जितशत्रु, श्रीकान्ता को प्राप्त करने के लिए बहुत व्याकुल हो उठा। वह सेना लेकर पुरिमताल नगर पर चढ़ आया और नगर को घेर लिया। उदितोदय राजा सोचने लगा-"बिना कारण यह एकाएक मेरे पर चढ़ाई करके चला आया है। यदि मैं इसके साथ युद्ध करने को तैयार होता हूँ, तो निष्कारण हजारों सैनिकों का विनाश होगा। मुझे अब आत्मरक्षा कैसे करनी चाहिए?" बहुत सोच विचार कर राजा ने अट्ठम तप किया और वैश्रमण देव की आराधना की। तप के प्रभाव से वैश्रमण देव उपस्थित हुआ। उसके सामने राजा ने अपनी इच्छा प्रकट की। देव ने पुरिमताल नगर का संहरण करके उसे दूसरे स्थान पर रख दिया। प्रातःकाल जितशत्रु राजा ने देखा कि पुरिमताल नगर का कहीं पता नहीं है। सामने खाली मैदान पड़ा हुआ है। विवश होकर जितशत्रु राजा ने अपनी सेना वहाँ से हटा ली और वापिस वाराणसी चला गया। राजा उदितोदय ने निष्कारण जन-संहार न होने दिया और बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी और प्रजा की-दोनों की रक्षा कर ली। यह राजा की पारिणामिकी बुद्धि थी। * यह पुष्पचूला सोलह सतियों में से चौदहवीं सती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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