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________________ मति ज्ञान - कृषक की कला १४७ *************** **** ************************************************************** १. सुनार .. (हैरण्यक) जिसने सुनार का कार्य करते-करते खूब अनुभव कर लिया है, ऐसा अनुभवी एवं प्रवीण पुरुष, रात के समय अन्धेरे में, हाथ के स्पर्श मात्र से सोना, चाँदी आदि को यथावस्थित जान लेता है। यह उसकी कर्मजा बुद्धि है। २-१२. कृषक की कला (करिसए) . किसी चोर ने एक सेठ के घर में ऐसी चतुराई से सेंध लगाई कि उसका आकार कमल के सरीखा बना दिया। प्रात:काल उसे देख कर बहुत से लोग चोर की चतुराई की प्रशंसा करने लगे। चोर भी वहाँ आकर अपनी प्रशंसा सुनने लगा। वहाँ एक किसान खड़ा था। उसने कहा - "शिक्षित पुरुष के लिए ऐसा करना कठिन नहीं है। किसी एक कार्य में प्रवीण व्यक्ति यदि उस कार्य को विशेष चतुराई के साथ करता है, तो इसमें क्या आश्चर्य है?" किसान की बात सुनकर चोर को अत्यंत क्रोध आया। उसने उस किसान का नाम और पता पूछा। फिर उसी दिन शाम को वह हाथ में तलवार लेकर उस किसान के घर पहुंचा ____ और कहने लगा-"मैं तुझे अभी मार देता हूँ।" किसान ने पूछा-"क्या बात है? तुम मुझे किस कारण से मारने को उद्यत हुए हो?" तब चोर ने कहा-"तुमने मेरे द्वारा लगाई हुई कमल के आकार वाली सेंध की प्रशंसा क्यों नहीं की?" चोर की बात सुनकर किसान ने निर्भयता के साथ कहा - "मैंने जो बात कही, वह ठीक ही थी, क्योंकि जो व्यक्ति जिस विषय में अभ्यस्त होता है, वह उस कार्य में अधिक उत्कर्षता प्राप्त कर लेता है। इस विषय में मैं स्वयं उदाहरण रूप हूँ। मेरे हाथ में ये मूंग के दाने हैं। यदि तुम कहो, तो मैं इनको इस तरह से पृथ्वी पर डाल सकता हूँ कि इन सब का मुंह ऊपर, नीचे, दाएं या बाएं किसी भी एक ओर ही रहे।" तब चोर ने कहा - "इन मूंगों को इस तरह डालो कि सब का मुंह नीचे की ओर रहे।" पृथ्वी पर एक कपड़ा बिछा दिया गया, फिर किसान ने उन मूंगों को इस तरह डाला कि सब का मुंह नीचे की ओर ही रहा। .. यह देख कर चोर बड़ा विस्मित हुआ। वह किसान की कुशलता की बार-बार प्रशंसा करने लगा और कहने लगा - "यदि तुमने इनको अधोमुख न गिराया होता, तो मैं तुम्हें अवश्य मार देता।" चोर संतुष्ट होकर अपने घर चला गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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