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________________ मति ज्ञान - ग्रंथि भेद १४१ ********** *********************************************** ***************************************** दूसरे घोड़े नहीं चाहिए। मैं इन्हीं दो घोड़ों को लेना चाहता हूँ।" तब बुद्धिमान सेठ ने सोचा-'इसे घर-जमाई बना लेना चाहिए, नहीं तो यह इन उत्तम घोड़ों को लेकर चला जायेगा। लक्षण सम्पन्न घोड़ों के रहने से कुटुम्ब तथा धन-सम्पत्ति की वृद्धि होगी'-ऐसा सोचकर उसने अपनी पत्नी और पुत्री दोनों की अनुमति लेकर उसके साथ कन्या का विवाह करके उसे घर-जमाई रख लिया। इस प्रकार उस सेठ ने उन लक्षण सम्पन्न दोनों घोड़ों को बचा लिया। उस सेठ की यह वैनेयिकी बुद्धि थी। ९. ग्रंथि भेद किसी समय पाटलिपुर में मुरंड नाम का राजा राज्य करता था। एक समय दूसरे देश के राजा के कौतुक ने लिए उसके पास ये तीन चीजें भेजी-१. गूढ़सूत्र - यानी ऐसा सूत जिसकी गाँठ छिपी हुई थी। २. समयष्टि-एक ऐसी लकड़ी कि जिसका ऊपर वाला और नीचे वाला दोनों भाग समान .. थे। ३. एक ऐसा डिब्बा जिसका मुँह लाख से चिपकाया हुआ था, किन्तु दिखाई नहीं देता था। राजा ने अपने सभी दरबारियों को तीनों वस्तुएँ दिखाई, किन्तु कोई भी इनके भेद को नहीं समझ सका। तब राजा ने यति जैसे बने हुए 'पादलिप्त' नाम के आचार्य से पूछा-"भगवन्! आप इन वस्तुओं के ग्रंथिद्वार को जानते हैं? यदि जानते हों, तो बतलाने की कृपा कीजिये।" .. राजा की प्रार्थना को सुनकर उस यति आचार्य ने सूत को गरम पानी में डाला। जिससे सूत का मैल हट गया और उसका अन्तिम भाग दिखाई पड़ा। आचार्य जानते थे कि लकड़ी का मूल भाग भारी होता है और भारी भाग पर ही गाँठ होती है। उन्होंने लकड़ी को भी गरम पानी में डाला। इससे रहस्य खुल गया। तत्पश्चात् यति आचार्य ने उस डिब्बे को गरम करवाया। जिससे लाख गल गई और डिब्बे का मुँह साफ दिखाई दिया। .. राजा आदि सभी दर्शक इस कौतुक को देख कर बहुत प्रसन्न हुए। फिर राजा ने यति आचार्य से प्रार्थना की-"भगवन्! आप भी कोई ऐसा दुर्जेय कौतुक करके मुझे दीजिये, जिसे मैं उस राजा के पास भेज सकूँ।" तब विनयबुद्धि संपन्न आचार्य ने एक तुम्बी के एक भाग को काटकर उसमें रत्न भर दिये और उस टुकड़े को वापिस इस प्रकार सी दिया कि किसी को मालूम नहीं पड़ सके। राजा ने वह तुम्बी उस विदेशी राजदूत को दी और कहा - "यह तुम्बी तुम्हारे राजा को देना और कहना कि इसको तोड़े बिना ही इसमें से रत्न निकाल ले।" राजदूत ने वह तुम्बी अपने राजा को दी और सन्देश कह सुनाया। राजा ने वह तुम्बी अपने सभी दरबारियों को दिखाई, किन्तु किसी को भी उसे कटे हुए भाग का पता नहीं चला और वे उसे बिना तोड़ उसमें से रत्न नहीं निकाल सके। आचार्य की यह विनयजा बुद्धि थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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