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________________ १३८ * ******************** नन्दी सूत्र * ** ___ विनयी की बात सुनकर बुढ़िया बड़ी प्रसन्न हुई। उसको आशीर्वाद देती हुई अपने घर गई और घर पर आये हुए पुत्र को देखा। पुत्र ने विनयपूर्वक माता को प्रणाम किया। बुढ़िया ने पुत्र को आशीर्वाद देकर नैमित्तिक का कहा हुआ सब वृतांत कह सुनाया। उसे सुनकर पुत्र भी बड़ा प्रसन्न हुआ। फिर कुछ रुपये और वस्त्र लेकर वह बुढ़िया, विनयी के पास आई और उसे भेंट देकर घर लौट गई। ___ इन घटनाओं पर से विनयहीन सोचने लगा-"गुरु ने मुझे अच्छी तरह नहीं पढ़ाया अन्यथा जैसा यह जानता है, वैसा मैं भी क्यों नहीं जानता?" वहाँ का कार्य समाप्त कर वे दोनों गुरु के पास आए। गुरु को देखते ही विनयी ने दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक गुरु के चरणों में प्रणाम किया दूसरा ढूंठ की तरह खड़ा कहा। तब गुरु ने उससे कहा-"वत्स! गुरु को प्रणाम करना आदि शिष्टाचार का पालन भी नहीं करते?" तब वह बोला-"जिसको आपने अच्छी तरह पढ़ाया है, वही प्रणाम करेगा। हम ऐसे पक्षपाती गुरु को प्रणाम नहीं करते।" इस पर गुरु बोले-"वत्स! यह तुम्हारी भूल है। मैंने तुम दोनों को समान रूप से विद्या दी है। मैंने किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया।" अविनीत ने प्रवास में घटी हुई घटना कह सुनाई। तब गुरु ने विनयी से पूछा-"वत्स! कहो, तुमने यह सब कैसे जाना?" वह बोला-"गुरुदेव! मैंने यह सब आप की कृपा से जाना। बड़े पैरों के चिह्न देखते ही मैंने विचार करना शुरू किया कि ये हाथी के तो पैर दिखते ही हैं, किन्तु इनमें विशेषता क्या है ? फिर उसकी लघुशंका से गिरे मूत्र को देख कर यह निश्चय किया कि ये हथिनी के पैर हैं। आगे चलते हुए देखा, तो दाहिनी तरफ के वृक्ष के पत्ते खाये हुए थे, किन्तु बाँई तरफ के नहीं। इससे मैंने यह समझा कि वह हथिनी बाँई आँख से कानी है। साधारण मनुष्य कभी हाथी सवारी नहीं कर सकता। इससे निश्चय किया गया कि इस पर कोई राज परिवार का मनुष्य है। वृक्ष पर लगे हुए रंगीन वस्त्र के टुकड़े को देख कर निश्चय किया कि वह रानी है और सधवा है। कुछ आगे चल कर देखा, तो लघुशंका की हुई थी और वापिस उठते हुए दोनों हाथों को जमीन पर टेक कर उठी थी, उसमें दाहिने पैर और दाहिने हाथ पर अधिक भार पड़ा हुआ था। इन सब बातों को देख कर यह निश्चय किया कि वह रानी गर्भवती है और थोड़े ही समय में उसके पुत्र उत्पन्न होगा। इस प्रकार मैंने चिह्नों से पहली बात जानी।" ____ जब बुढ़िया ने आकर प्रश्न किया, तो उसी समय उसके सिर से घड़ा गिर कर फूट गया। इस पर मैंने सोचा कि जैसे घड़े की मिट्टी का भाग मिट्टी में और पानी का भाग पानी में मिल गया उसी तरह इस बुढ़िया का पुत्र भी इसे मिल जाना चाहिये। इस प्रकार मैंने विवेकपूर्वक विचार : किया, जिससे मेरी बातें सत्य सिद्ध हुई। . विनयी की उपरोक्त बात सुनकर गुरु बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसके विनयजन्य विवेकज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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