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________________ १३२ ************************ नन्दी सूत्र **** ****** ******************************* से पहले ही उस प्रतिमा को हटा कर आसन बिछा रखा था। वहीं पर उसने मित्र को बिठाया। इसके बाद उसने दोनों बंदरों को छोड़ दिया। वे किलकिलाहट करते हुए आए और उस कपटी मित्र को प्रतिमा समझ कर उसके शरीर पर सदा की तरह उछलने-कूदने लगे। यह बन्दर लीला . देख कर वह घबराया, बड़े आश्चर्य में पड़ा। तब दूसरा मित्र खेद प्रदर्शित करते हुए कहने लगा"मित्र! ये ही तुम्हारे दोनों लड़के हैं। बहुत दुःख की बात है कि ये दोनों बन्दर हो गये हैं। देखो! किस तरह तुम्हारे प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं?" तब कपटी मित्र बोला-"मित्र तुम क्या कह रहे हैं? क्या मनुष्य भी कहीं बन्दर हो सकते हैं?" इस पर दूसरे मित्र ने कहा-"मित्र! भाग्य की बात है। जिस प्रकार अपने भाग्य के फेर से गड़ा हुआ धन भी कोयला हो गया, उसी प्रकार भाग्य के फेर से तुम्हारे पुत्र भी बन्दर हो गए हैं। इसमें आश्चर्य करने जैसी बात क्या है?" मित्र की बात सुन कर उस मायावी ने समझ लिया कि इसको निधान विषयक मेरी चालाकी का पता लग गया है। अब यदि मैं अपने लड़कों के लिए झगड़ा करूँगा, तो मामला बहुत बढ़ जायेगा। राज दरबार में मामला पहुंचने पर निधान न तो मेरा रहेगा और न इसका ही। ऐसा सोच कर उसने उसको निधान विषयक सच्ची बात कह दी और अपनी गलती के लिए क्षमा माँगी। निधान का आधा हिस्सा भी उसने उसको दे दिया और उसे उसके दोनों लड़के मिल गए। मित्र की यह औत्पत्तिकी बुद्धि थी। २४. गोबर के उपलों में (शिक्षा) एक पुरुष धनुर्विद्या में प्रवीण था। घूमते हुए वह एक नगर में पहुँचा और वहाँ सेठों के लड़कों को धनुर्विद्या सिखाने लगा। लड़कों ने उसे बहुत धन दिया। जब यह बात सेठों को मालूम हुई, तो उन्होंने सोचा कि इसने लड़कों से बहुत धन ले लिया है। इसलिए जब यह यहाँ से अपने गाँव को रवाना होगा, उस समय इसे मार कर धन वापिस ले लेंगे। कलाचार्य को किसी प्रकार से इन विचारों का पता लग गया। उसने दूसरे गाँव में रहने वाले अपने सम्बन्धियों को सूचना दी कि-"अमुक रात में मैं गोबर के पिण्ड नदी में फेंकूगा, सो आप उन्हें ले लेना।" इसके पश्चात् कलाचार्य ने गोबर के कुछ पिण्डों में द्रव्य मिला कर उन्हें धूप में सुखा दिया। कुछ दिनों बाद उसने लड़कों से कहा-"अमुक तिथि पर्व को रात्रि के समय हम लोग नदी में स्नान करते हैं और मन्त्रोच्चारणपूर्वक गोबर के पिण्डों को नदी में फेंकते हैं। ऐसी हमारी कुल-विधि है।" लड़कों ने कहा-"ठीक है। हम भी योग्य सेवा करने के लिए तैयार हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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