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________________ १२६ ******************** ************ नन्दी सूत्र ********* *********************** ************ फिर छोटे पति के लिए कहा - "वे कोमल हैं, बहुत घबरा रहे होंगे। इसलिए पहले उन्हें देख लूँ।" ऐसा कह कर वह अपने छोटे पति की खबर लेने के लिए रवाना हो गई। दोनों पुरुषों ने मंत्री के पास जाकर सारा हाल कहा। उसे सुनकर मंत्री ने राजा से निवेदन किया। राजा, मंत्री की बुद्धिमत्ता पर बहुत प्रसन्न हुआ। इस प्रकार निर्णय करना मंत्री की औत्पत्तिकी बुद्धि थी। १७. पुत्र किसका? (पुत्र) एक सेठ के दो स्त्रियाँ थी। उनमें एक पुत्रवती थी और दूसरी वन्ध्या। वन्ध्यां स्त्री अपनी सौत के लड़के को अधिक प्यार करती थी। इसलिए बालक दोनों को ही मां समझता था। वह उन दोनों में यह नहीं जानता था कि उसकी सगी माँ कौन है? कुछ समय के पश्चात् वह सेठ अपने सारे परिवार को लेकर परदेश चला गया और विदेश में ही सेठ की मृत्यु हो गई। अब दोनों स्त्रियाँ झगड़ने लगीं। मूल माता ने कहा-"यह पुत्र मेरा है, इसलिए घर की मालकिन मैं हूँ।" इस उत्तर पर सौतेली ने कहा-"यह पुत्र मेरा है, अत: घर की मालकिन तो मैं हूँ।" इस विषय में दोनों में कलह उत्पन्न हो गया। अन्त में दोनों न्यायालय में गई। दोनों स्त्रियों की बात सुन कर न्यायाधिकारी विचार में पड़ गया कि इसका निर्णय कैसे किया जाय? उसने अपने बुद्धिबल से काम लिया। उसने आज्ञा दी कि"इनका सारा धन मेरे सामने लाकर दो भागों में बाँट दो। इसके बाद करवत के द्वारा इस लड़के के भी दो टुकडे कर डालो और एक-एक टकडा दोनों को दे दो।" निर्णय सुन कर पुत्र की सच्ची माता का हृदय काँप उठा। वह व्याकुल हो कर कहने लगी"महानुभाव! मुझे पुत्र नहीं चाहिए और धन भी नहीं चाहिए। यह पुत्र इसी को दे दीजिए और घर की मालकिन भी इसी को बना दीजिए, किन्तु पुत्र के दो टुकड़े मत करवाइये। मैं तो किसी के यहाँ नौकरी करके भी अपना निर्वाह कर लूँगी और इस बालक को दूर से ही देख कर अपने मन में सन्तोष मानूंगी। किंतु पुत्र के टुकड़े कर देने से तो अभी ही मेरा स्नेह संसार अन्धकारपूर्ण हो जायेगा।" इस प्रकार पुत्र के जीवन के लिए मूल स्त्री करूण विलाप कर चिल्ला रही थी, परन्तु दूसरी स्त्री ने कुछ नहीं कहा। वह चुप-चाप बैठी रही। इससे अधिकारी ने यह समझ लिया कि 'पुत्र का खरा दर्द इसी स्त्री को है, इसलिए यही इसकी सच्ची माता है। ऐसा समझ कर उसने उस स्त्री को पुत्र दे दिया और उसी को घर की मालकिन बना दी। अधिकारी ने दूसरी स्त्री को तिरस्कारपूर्वक वहाँ से निकलवा दिया। अधिकारी की यह औत्पत्तिकी बुद्धि थी।' अब शेष दृष्टान्तों को सूत्रकार प्रस्तुत करते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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