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________________ १२४ नन्दी सूत्र **** हुई रथ के पीछे-पीछे आने लगी। उसे इस तरह रोती हुई देख कर पुरुष असमंजस में पड़ गया। उसने रथ को धीमा कर दिया। थोड़ी देर में वह स्त्री रथ के पास आ पहुँची। अब दोनों में झगड़ा होने लगा। एक कहती थी कि - "मैं इसकी स्त्री हूँ" और दूसरी कहती कि "मैं"। इस प्रकार लड़ती-झगड़ती वे दोनों गाँव तक पहुंच गई। वहाँ न्यायालय में जाकर दोनों ने फरियाद की। न्यायाधीश ने पुरुष से पूझा-"तुम्हारी स्त्री कौन-सी है?" उत्तर में उसने कहा - "दोनों का एक सरीखा रूप होने से मैं निश्चय पूर्वक कुछ भी नहीं कह सकता।" तब न्यायाधीश ने अपने बुद्धिबल से काम लिया। उसने पुरुष को दूर बिठा दिया और दोनों से कहा - "तुम दोनों में से जो पहले अपने हाथ से उस पुरुष को छू लेगी, वही उसकी स्त्री समझी जायेगी।" न्यायाधीश की बात सुनकर व्यन्तरी बहुत खुश हुई। उसने तुरन्त वैक्रिय शक्ति से अपना हाथ लम्बा करके उस पुरुष को छू लिया। इससे न्यायाधीश समझ गया कि 'यही व्यन्तरी है।' न्यायाधीश ने उससे कहा"तुम इसकी स्त्री नहीं हो, तुमने दैवी माया से इस पुरुष को छल लिया है।" ऐसा कहकर न्यायाधीश ने उसको वहाँ से निकलवा दिया और पुरुष को उसकी स्त्री सौंप दी। इस प्रकार निर्णय करना न्यायाधीश की औत्पत्तिकी बुद्धि थी। - १५. मूलदेव का छल (स्त्री) मूलदेव और पुण्डरीक नाम के दो मित्र थे। एक दिन वे कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध पुरुष को देखा जो अपनी युवा स्त्री को साथ लेकर जा रहा था। स्त्री के अद्भुत रूप लावण्य को देखकर पुण्डरीक उस पर मुग्ध हो गया। उसने मूलदेव से कहा - "मित्र! यदि इस स्त्री से मिला दो, तो जीवित रह सकूँगा अन्यथा मर जाऊँगा।" मूलदेव ने कहा, "मित्र! घबराओ मत। मैं तुम्हें इससे अवश्य मिला दूंगा।" ___ इसके बाद वे दोनों पति-पत्नी से नजर बचाते हुए शीघ्र ही बहुत दूर निकल गये। आगे जाकर मूलदेव ने पुण्डरीक को एक वन निकुंज में बिठा दिया और स्वयं रास्ते पर आकर खड़ा हो गया। जब वे पति-पत्नी वहाँ पहुँचे, तो मूलदेव ने उस पुरुष से कहा - "महाशय! इस वननिकुंज में मेरी स्त्री प्रसव वेदना से कष्ट पा रही है। थोड़ी देर के लिए आप अपनी स्त्री को वहाँ भेज दें, तो बड़ी कृपा होगी।" उस पुरुष ने अपनी स्त्री को वहाँ जाने के लिए कह दिया। स्त्री व्यभिचारिणी और चतुर थी। वह वन-निकुंज की ओर जाने लगी। उसने दूर से ही देख लिया कि वन-निकुंज में कोई पुरुष छिपकर बैठा हुआ है। उसके साथ सहशयन कर वह वापिस लौट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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