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________________ १६० . .. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र दुरूहइ, दुरूहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ २ ता दब्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेइ बारसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकंते, उद्धियसल्ले समाहिपत्ते . कालं मासे कालं किच्चा उद्धं चंदिमसूरगहगणखत तारारूवाणं बहूई जोयणाई 'बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूइ जायणसयसहस्साई बहूई जोयण कोंडीओ बहूई जोयणकोडाकोडीआ उह दूर उप्पेइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमारमाहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क -सहस्सारा-णय-पाणयारणच्चुए तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजय महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। ___शब्दार्थ - उद्धं - ऊर्ध्व, ऊपर, सूर - सूर्य, उप्पइत्ता - ऊपर जाकर, तिण्णि - तीन, अट्ठारसुत्तरे - अठारह, गेवेज - नवग्रैवेयक, वीइवइत्ता - व्यतिक्रांत कर-लांघ कर। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गणधर गौतम स्वामी को संबोधित कर : कहा-गौतम! मेरा अन्तेवासी मुनि मेघकुमार प्रकृति से भद्र एवं विनीत था। उसने गीतार्थ, योग्य स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बारह भिक्षुप्रतिमाओं एवं गुणरत्नसंवत्सर नामक तप की सम्यक् आराधना की। मुझ से आज्ञा प्राप्त कर, तुम से एवं अन्यान्य स्थविरों से क्षमत-क्षमापना किया।सुयोग्य वैयावृत्यकारी स्थविरों के साथ विपुल पर्वत पर आरूढ हुआ। दर्भ संस्थारक लगाया। उस पर स्थित होकर स्वयं ही पांच महाव्रतों का उच्चारण किया। तब तक वह बारह वर्ष का श्रमण पर्याय संपन्न कर चुका था। उसने एक मास की संलेखना द्वारा देह को कृश एवं आत्मा को सबल-स्वस्थ बनाते हुए साठ भक्तों को अनशन द्वारा छेद कर एक मासिक उपवास परिपूर्ण कर, आलोचन-प्रतिक्रमण, शल्य उद्धरण कर समाधि को प्राप्त किया। मृत्यु का समय आने पर देह त्याग कर वह चन्द्र, सूर्य, ग्रहवृंद, नक्षत्र, तारागण से बहुत योजन-बहुत, सैकड़ों हजारों, लाखों, करोड़ों एवं कोड़ा-कोड़ी योजन ऊपर जाकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत संज्ञक देवलोकों तथा तीन सौ अठारह नव ग्रैवेयक विमानावासों को व्यतिक्रांत कर-लाँघ कर 'विजय' महाविमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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