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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - वनखण्ड का वर्णन कठिन शब्दार्थ - जाइमंडवगा - जाई मण्डप - चमेली के फूलों से लदे हुए मण्डप (कुंज), मालुयामंडवगा - मालुका (एक गुठली वाले फलों के वृक्षों) का मंडप । भावार्थ - - उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और उन उन भागों में बहुत से जाई मण्डप हैं, जूही मण्डप हैं, मल्लिका मण्डप हैं, नवमालिका मण्डप हैं, वासन्तीलता मण्डप हैं, दधिवासुका (वनस्पति विशेष) का मण्डप हैं, सूरिल्ली मण्डप, तांबूली (नागवल्ली) मण्डप, मुद्रिका ( द्राक्षा) मण्डप, नागलता मण्डप, अतिमुक्तक मण्डप, अप्फोया (वनस्पति विशेष) मण्डप, मालुका मण्डप और श्यामलता मण्डप हैं। ये नित्य कुसुमित, नित्य पल्लवित रहते हैं यावत् ये सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं । तेसु णं जाइमंडवएसु जाव सामलयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता, तंजहा अप्पेगइया हंसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचासणसंठिया अप्पेगइया गरुलासणसंठिया अप्पेगड्या उण्णयासणसंठिया अप्पेगइया पणयासणसंठिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया अप्पेगइया भद्दासणसंठिया अप्पेगइया पक्खासणसंठिया अप्पेगइया मगरासणसंठिया अप्पेगइया उसभासणसंठिया अप्पेगइया सीहासणसंठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिया अप्पेगइया दिसासोत्थियासणसंठिया० प० तत्थ बहवे . वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो ! आइण्णगरूयबूरणवणीयतूलफासा मउया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ भावार्थ - उन जाति मण्डपों में यावत् श्यामलता मण्डपों में बहुत से पृथ्वी शिलापट्टक कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - जिनमें से कोई हंसासन की आकृति वाले हैं, कोई क्रोंचासन के समान स्थित है, कोई गरुड़ासन की आकृति के हैं, कोई उन्नतासन की आकृति के हैं, कोई प्रणतासन की आकृति के हैं, कोई भद्रासन की आकृति के हैं, कोई दीर्घासन की आकृति के हैं, कितनेक पक्ष्यासन के समान,, कितनेक मकरासन, कितनेक वृषभासन, कितनेक सिंहासन, कितनेक पद्मासन और कितनेक दिशा स्वस्तिक आसन की आकृति वाले हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वहां पर अनेक पृथ्वी शिलापट्टक, जितने विशिष्ट चिह्न, जितने विशिष्ट नाम और जितने प्रधान शयन एवं आसन हैं उनके समान आकृति के हैं । उनका स्पर्श आजिनक (मृग चर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंस तूल के समान मुलायम हैं, मृदु हैं। वे सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। - तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठेति णिसीयंति तुट्टेति रति ललंति किलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति । Jain Education International ४३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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