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________________ विरोध नहीं होता है। जो बात तीर्थंकर भगवंत फरमाते हैं, उसको श्रुतकेवली ( स्थविर भगवन्त ) भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवली सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं, तो श्रुतकेवली, श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप में जानते हैं। उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं, क्योंकि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं । वे हमेशा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे रखकर ही चलते है। उनका उद्घोष होता है " णिग्गंथं पावयणं अट्ठे अयं परमठ्ठे सेसे अणट्टे" निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ रूप, परमार्थ रूप है शेष सभी अनर्थ रूप है । अतएव उनके द्वारा रचित आगम ग्रन्थ भी उतने ही प्रमाणिक माने जा रहे हैं जितने गणधर कृत अंग्र- सूत्र । : जैनागमों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। समवायांग सूत्र. इनका वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में मिलता है, दूसरा वर्गीकरण अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में किया गया है, तीसरा और सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद रूप में है, जो वर्तमान में प्रचलित है। ११ अंग : आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्म कथांग, उपासक दशांग, अन्तकतदशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण एवं विपाक सूत्र । १२ उपांग :- औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरियावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा सूत्र । ४ छेद : ४ मूल :१ आवश्यक : [4] कुल ३२ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ सूत्र । उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोग द्वार सूत्र । Jain Education International प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम जो उपांग का तीसरा सूत्र है, इसके रचयिता स्थविर भगवन्त हैं, इसके लिए सूत्र के प्रारम्भ में स्थविर भगवन्तों का उल्लेख करते हुए कहा गया है - " इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्खाय जिणाणुचिणं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थ अणुव्वीइय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं यमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगम णामञ्झयणं पण्णवइंसु ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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