SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव त्रिविध वक्तव्यता ३५९ अणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ जे ते साइए सपनवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं सम्मामिच्छादिट्ठी जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ भावार्थ - जो आचार्य आदि ऐसा प्रतिपादित करते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार के हैं। वे तीन प्रकार इस प्रकार कहे हैं - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि। प्रश्न - हे भगवन्! सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि रूप में कितने काल तक रहता है ? ..... उत्तर - हे गौतम! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - सादि अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित। जो सादि सर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. अनादि अपर्यवसित २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। इनमें जो सादि सपर्यवसित हैं वे जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन तक रह सकते हैं। सम्यग् मिथ्यादृष्टि जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त तक रह सकता है। विवेचन - सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. सम्यग्दृष्टि २. मिथ्यादृष्टि और ३. सम्यग् . मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। तीनों की कायस्थिति इस प्रकार है। सम्यग्दृष्टि के दो भेद हैं - १. सादि अपर्यवसित (क्षायिक सम्यग्दृष्टि) और सादि सपर्यवसित (क्षायोपशमिक आदि सम्यक्त्वी) इनमें से जो सादि. सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं उनकी कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त है क्योंकि विचित्र कर्मपरिणाम होने से इतने काल के पश्चात् कोई जीव मिथ्यादृष्टि बन सकता है। उत्कृष्ट छियासठ सागरोपम तक वह सम्यग्दृष्टि रह सकता है इसके बाद नियम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं रहता। मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अपर्यवसित २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। इनमें जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त तक रहता है। इतने काल बाद जीव पुनः सम्यग्दर्शन पा सकता है उत्कृष्ट अनन्तकाल तक मिथ्यादृष्टि रहता है। अनंतकाल अर्थात् काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप, क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। जिसने पूर्व में एक बार भी सम्यक्त्व पा लिया है वह इतने काल बाद पुन: सम्यग्दर्शन पा लेता है।.. ... सम्यग् मिथ्यादृष्टि जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अंतर्मुहूर्त तक रहता है क्योंकि स्वभाव से ही मिश्रदृष्टि का काल इतना ही है किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट का अंतर्मुहूर्त अधिक होता है। सम्मदिहिस्स अंतरं साइयस्स अपजवसियस्स पत्थि अंतरं, साइयस्स सपजवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियढ़ें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy