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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र सादि सपर्यवसित हैं क्योंकि मतिज्ञान आदि छाद्मस्थिक होने से सादि सान्त हैं। इनमें जो सादि सपर्यवित ज्ञानी हैं वह जघन्य अंतर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट साधिक छासठ सागरोपम तक रहता है । यह काल मर्यादा सम्यक्त्व की अपेक्षा समझनी चाहिये क्योंकि सम्यक्त्व की जघन्य स्थिति अंतर्मुहुर्त और उत्कृष्ट छासठ सागरोपम से कुछ अधिक है। यह स्थिति सम्यक्त्व से गिरे बिना विजय आदि में जाने की अपेक्षा है । भाष्य में कहा है - ३५० दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽअच्चुए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धा ॥ - दो बार विजयादि विमान में अथवा तीन बार अच्युत देवलोक में जाने से छियासठ सागरोपम काल और मनुष्य के भवों का काल साधिक गिनने यह उत्कृष्ट स्थिति बनती है । अज्ञानी तीन प्रकार के हैं - १. अनादि अपर्यवसित २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। अनादि अपर्यवसित अज्ञानी वह है जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा । अनादि सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो अनादि मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व पाकर और उससे अप्रतिपातित होकर क्षपक श्रेणी को प्राप्त करेगा । सादि सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो सम्यग्दृष्टि बन कर मिथ्यादृष्टि बन गया हो। ऐसा अज्ञानी जघन्य अंतर्मुहूर्त काल उसमें रह कर फिर सम्यग्दृष्टि बन सकता है इस अपेक्षा से उसकी कायस्थिति जघन् अंतर्मुहूर्त और अनन्तकाल है । यह अनन्तकाल काल से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप तथा क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। णाणिस्स अंतरं जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं अवड्डुं पोग्गलपरिय देसूणं । अण्णाणिस्स दोण्हवि आइल्लाणं णत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाइं साइरेगाणं । अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा ाणी अण्णाणी अनंतगुणा ॥ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा - सागरोवउत्ता अणगारोवउत्ता य, संचिट्टणा अंतरं च जहग्णेणं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, अप्पाबहु० सागरो० संखे० ॥ २४६ ॥ भावार्थ - ज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनंतकाल, जो देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त रूप है। आदि (शुरु) के दो अज्ञानी (अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित) का अन्तर नहीं है। सादि सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है । अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े ज्ञानी, उनसे अज्ञानी अनन्तगुणा हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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