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________________ १५८ जीवाजीवाभिगम सूत्र हे गौतम! इस दकसीम आवास पर्वत से शीता शीतोदा महानदियों का प्रवाह यहां आकर प्रतिहत हो जाता है (लौट जाता है)। इसलिए यह उदक की सीमा करने वाला होने से दकसीम कहलाता है। यह शाश्वत नित्य है। यहां मनःशिलक नाम का महर्द्धिक देव रहता है यावत् वह चार हजार सामानिक देवों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! मन:शिलक वेलंधर नागराज की मनःशिला राजधानी कहां है? हे गौतम! दकसीम आवास पर्वत के उत्तर में तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर अन्य लवण समुद्र में मनःशिला नाम की राजधानी है। उसका प्रमाण आदि सारा वर्णन विजया राजधानी के समान कह देना चाहिये यावत् वहां एक पल्योपम की स्थिति वाला मन:शिलक नामक महर्द्धिक देव रहता है। वेलंधर नागराजाओं के आवास पर्वत क्रमश: कनकमय, अंक रत्नमय, रजतमय और स्फटिकमय हैं। अनुवेलंधर नागराजों के पर्वत रत्नमय ही हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वेलंधर नागराजों के आवास पर्वत, उनके महर्द्धिक देवों और उनकी राजधानियों का वर्णन किया गया है। अनुवेलंधर नागराज देवों का वर्णन कइ णं भंते! अणुवेलंधरणागरायाणो पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि अणुवेलंधरणागरायाओ पण्णत्ता, तंजहा-कक्कोडए कद्दमए केलासे अरुणप्पभे। एएसि णं भंते! चउण्हं अणुवेलंधरणागरायाणं कइ आवासपव्वया पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता, तंजहा-कक्कोडए १ कद्दमए २ कइलासे ३ अरुणप्पभे ४॥ भावार्थ - हे भगवन्! अनुवेलंधर नागराज कितने हैं ? हे गौतम! अनुवेलंधर नागराज चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा - कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ। हे भगवन् ! इन चार अनुवेलंधर नागराजों के कितने आवास पर्वत हैं ? हे गौतम! अनुवेलंधर नागराजों के चार आवास पर्वत हैं। वे इस प्रकार हैं - कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ। विवेचन - वेलंधर नागराजों की आज्ञा में चलने वाले देव अनुवेलंधर नागराज कहलाते हैं। कहि णं भंते! कक्कोडगस्स अणुवेलंधरणागरायस्स कक्कोडए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं कक्कोडगस्स णागरायस्स कक्कोडए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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