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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक ........................................morrorrorrowroom सरसं च गोसीसचंदणं गिण्हंति २ त्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामं गेहंति गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंति तेणेव समुवागच्छित्ता सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणोदामं दद्दरयमलयसुगंधिए य गंधे गेण्हंति २ त्ता एगओ मिलंति २ त्ता जंबुद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छंति पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमझेणं वीइवयमाणा २ जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति २ त्ता विजयं रायहाणिं अणुप्पयाहिणं करेमाणा २ जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति २ त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति विजयस्स देवस्स तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं अभिसेयं उवट्ठवेंति॥ कठिन शब्दार्थ - दंडं - दण्ड, णिस्सरंति - निकालते हैं-फैलाते हैं, उक्किट्ठाए - उत्कृष्ट, उद्भुयाए - उद्धृत (तेज), तित्थोदगं - तीर्थोदक-तीर्थों का पानी, तडमट्टियं - तटों की मिट्टी को, सिद्धत्थए - सिद्धार्थक-सरसों, अभिसेयं - अभिषेक। भावार्थ - आभियोगिक देव सामानिक परिषद् के देवों के ऐसा कहे जाने पर हृष्ट तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ। हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि लगाकर "देव! आपकी आज्ञा प्रमाण है" ऐसा कह कर विनयपूर्वक उन्होंने उस आज्ञा को स्वीकार किया। वे उत्तर पूर्व दिशा भाग में जाते हैं और वैक्रिय संमुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकालते हैं, रत्नों के यावत् रिष्ट रत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। तदनन्तर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ सोने के कलश, एक हजार आठ चांदी के कलश, एक हजार आठ मणियों के कलश, एक हजार आठ सोने चांदी के कलश, एक हजार आठ सोने मणियों के कलश, एक हजार आठ चांदी-मणियों के कलश, एक हजार आठ मिट्टी के कलश, एक हजार आठ झारियां, इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरंडक, पुष्प चंगेरियां यावत् लोमहस्तक चंगेरियां, पुष्पपटलक यावत् लोमहस्तपटलक, एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, वर्तक, तपःसिप्र, क्षौरक, पीनक, तैलसमुद्गक, एक सौ आठ धूपाणिये (धूप के कडुच्छुक) विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपाणियों (धूप कडुच्छकों) को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धृत दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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