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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र भावार्थ - उस अलंकार सभा के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में एक बड़ी व्यवसाय सभा कही गई. है । परिवार रहित सारा वर्णन अभिषेक सभा की तरह सिंहासन पर्यन्त तक कह देना चाहिये। उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तक रत्न रखा हुआ है। उस पुस्तक रत्न का वर्णन इस प्रकार है - रिष्ट रत्न की उसकी कंबिका (पुट्ठे) हैं, चांदी के उसके पन्ने हैं, रिष्ट रत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है, जिसमें पन्ने पिरोये हुए हैं नाना मणियों की उस डोरे की गांठ है ताकि पन्ने अलग अलग न हों, वैडूर्य रत्न का मषिपात्र - दवात है, तपनीय स्वर्ण की उस दवात की सांकल है, रिष्ट रत्न का उसका ढक्कन है, रिष्ट रत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है । वह एक धार्मिक ग्रंथ हैं । उस व्यवसाय सभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के हैं यावत् रत्नों से सुशोभित है। ८८ उस व्यवसाय सभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल बलिपीठ है, वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उस बलिपीठ के उत्तरपूर्व में एक बड़ी नन्दा पुष्करिणी कही गई है। उसका प्रमाण आदि वर्णन पूर्वोक्त सरोवर के समान समझ लेना चाहिये । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में उपपात सभा आदि का वर्णन किया गया है अब सूत्रकार विजयदेव का उपपात वर्णन करते हैं - - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक तेणं काणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे ॥ तए णं से विजए देवे अहुणोववण्णेमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहा - आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए ॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोग संकप्पे समुपजित्था - किं मे पुव्वं सेयं किं मे पच्छा सेयं किं मे पुव्विं करणिज्जं किं मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुव्विं वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेसयाए अणुगामियत्ताए भविस्सइ त्तिकट्टु एवं संपेहेइ ॥ कठिन शब्दार्थ - देवसयणिज्जंसि - देव शयनीय में, देवदूतरिए - देवदूष्य के अंदर, अज्झथिए - अध्यवसाय, चिंतिए चिंतन, पत्थिए - प्रार्थित, मणोगए मनोगत । Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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