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________________ - प्रथम प्रतिपत्ति - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण - आहार द्वार ३३ गोयमा! आई पि आहारेंति, मझे वि आहारैति पजवसाणे वि आहारैति। ताइं भंते! किं सविंसए आहारेंति अविसए आहारेंति?.. गोयमा! सविसए आहारेंति णो अविसए आहारेंति। ताइं भंते! किं आणुपुव्विं आहारेंति अणाणुपुव्विं आहारेंति? गोयमा! आणुपुट्विं आहारेंति णो अणाणुपुट्विं आहारैति। ताई भंते! किं तिदिसिं आहारेंति चउदिसिं आहारेंति पंचदिसिं आहारेंति छ दिसिं आहारेंति? गोयमा! णिव्वाघाएणं छदिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, उस्सण्णकारणं पडुच्च वण्णओ कालाइंणीलाइं जाव सुक्किल्लाइं, गंधओ सुब्भिगंधाइं दुब्भिगंधाइं, रसओ जाव तित्तमहुराइं, फासओ कक्खडमउय जाव णिद्धलुक्खाई, तेसिं पोराणे वण्णगुणे जाव फासगुणे विप्परिणामइत्ता परिपालइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरओगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति॥ कठिन शब्दार्थ - पुढाई - स्पृष्ट, अपुट्ठाई - अस्पृष्ट, ओगाढाई - अवगाढ, अणोगाडाई - अनवगाढ, अणंतरोगाढाई - अनन्तर अवगाढ, परंपरोगाढाई - परम्परावगाढ, अणूई - अणु-थोडे प्रमाण वाले, बायराई - बादर-अधिक प्रमाण वाले, आई- आदि में स्थित, मग्झे - मध्य में, पज्जवसाणेपर्यवसान-अंत में, सविसए - सविषय-अपने योग्य, अविसए - अविषय-अपने अयोग्य, णिव्यापाएणंनिर्व्याघात, वाघायं - व्याघात, ओसण्णकारणं - ओसन्न कारण-प्रायः विशेष करके, पोराणे - पुराने-पहले के, विप्परिणामइत्ता - बदल कर, परिपालइत्ता - हटा कर, परिसाडइत्ता - झटक कर, परिविद्धंसइत्ता - विध्वंश कर, उप्पाइत्ता - उत्पन्न कर, आयसरीरओगाढे - आत्मशरीरावगाढ, सव्वप्पणयाए - सब नय से-सभी आत्मप्रदेशों से। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वे आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट का आहार करते हैं या अस्पृष्ट का आहार करते हैं? . उत्तर - हे गौतम! वे स्पृष्ट का आहार करते हैं, अस्पृष्ट का नहीं। प्रश्न - हे भगवन्! वे आत्मप्रदेशों से अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनवगाढ का आहार करते हैं? उत्तर - हे गौतम! वे आत्मप्रदेशों से अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, अनवगाढ का नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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