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________________ ३१८ जीवाजीवाभिगम सूत्र होते हैं। उनके हाथों की कलाइयां बैलों पर रखे हुए जूए के समान दृढ़, आनंद देने वाली, पुष्ट, सुस्थित, सघन, विशिष्ट, घन, स्थिर, सुबद्ध और निगूढ पर्व संधियों वाली होती है। उनकी हथेलियां लाल रंग की पुष्ट, कोमल, मांसल, प्रशस्त, लक्षणयुक्त, सुंदर और छिद्र जाल रहित अंगुलियां वाली हैं। उनके हाथों की अंगुलियां पुष्ट, गोल, सुजात और कोमल हैं। उनके नख ताम्रवर्ण सदृशं पतले, स्वच्छ, मनोहर और स्निग्ध होते हैं। उनके हाथों में चन्द्र रेखा, सूर्य रेखा, शंख रेखा, चक्र रेखा, दक्षिणावर्त स्वस्तिक रेखा होती है, चन्द्र-सूर्य-शंख, चक्र दक्षिणावर्त स्वस्तिक की. मिलीजुली रेखाएं होती है। उनके हाथ अनेक श्रेष्ठ, लक्षणयुक्त उत्तम, प्रशस्त, स्वच्छ और आनंदप्रद रेखाओं से युक्त होते हैं। उनके स्कंध श्रेष्ठ भैंस, वराह, सिंह, शार्दूल (व्याघ्र) बैल और हाथी की स्कंध की तरह परिपूर्ण, विपुल और उन्नत होते हैं, उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख के समान है। उनकी ठुड्डी (होठों के नीचे का भाग) अवस्थित-सदा एक समान रहने वाली, सुविभक्त-अलग अलग सुंदर रूप से उत्पन्न दाढ़ी के बालों से युक्त, मांसल, सुंदर संस्थान युक्त, प्रशस्त और व्याघ्र की विपुल ठुड्डी के समान है उनके अधरोंष्ठ (होठ) परिकर्मित शिला प्रवाल और बिम्बफल के समान लाल हैं। उनके दांत सफेद चन्द्रमा के टुकड़ों जैसे विमल, निर्मल और शंख, गाय का दूध, फेन, जलकण और मृणालिका के तंतुओं के समान श्वेत हैं, उनके दांत अखण्डित, टूटे हुए नहीं और अलग अलग नहीं होते हैं, वे सुंदर दांत वाले हैं, उनके दांत अनेक होते हुए भी एक पंक्ति बद्ध हैं। उनकी जीभ और तालु अग्नि में तपा कर धोये गये और पुनः तप्त किये गये तपनीय स्वर्ण के सदृश लाल हैं। उनकी नाक . गरुड़ की नाक जैसी लम्बी, सीधी और ऊंची होती है। उनकी आंखें सूर्य किरणों से विकसित पुण्डरीक : कमल जैसी तथा खिले हुए श्वेत कमल जैसी कोनों पर लाल, बीच में काली और धवल तथा पश्मपुट वाली होती है उनकी भोंहे ईषत् आरोपित धनुष के समान वक्र, रमणीय, कृष्ण मेघराजि की तरह काली, प्रमाणोपेत, दीर्घ, सुजात, पतली, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक के भाग तक कुछ कुछ लगे हुए और प्रमाणोपेत होते हैं। वे सुंदर कानों वाले-भलीप्रकार सुनने वाले हैं। उनके गाल पुष्ट और मांसल होते हैं। उनका ललाट नवीन उदित बालचन्द्र जैसा प्रशस्त विस्तीर्ण और समतल होता है। उनका मुख पूर्णिमा के चांद जैसा सौम्य होता हैं। उनका मस्तक छत्राकार और उत्तम होता है। . उनका सिर घन-निबिड सुबद्ध, प्रशस्त लक्षणों वाला, कूटाकार-पर्वत शिखर की तरह उन्नत, पाषाण पिण्डी की तरह गोल और मजबूत होता है। उनकी केशान्तभूमि-खोपडी की चमड़ी दाडिम के फूल की तरह लाल, तपनीय सोने के समान निर्मल और सुंदर होती है। उनके मस्तक के बाल खुले किये जाने पर भी शाल्मलि वृक्ष के फल की तरह घने और निबिड होते हैं। उनके बाल मृदु, निर्मल, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त, सुगंधित, सुंदर, भुजमोचक (रत्नविशेष), नीलमणि (मरकत मणि) भंवरी, नील और काजल के समान काले, हर्षित भ्रमरों के समान अत्यंत काले स्निग्ध और निचित-बिखरे हुए नहीं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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