SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - मनुष्य उद्देशक - दस वृक्षों का वर्णन - दीपशिखा नामक वृक्ष ३०३ पन्जलिऊसविर्णिद्ध तेयदिप्यंत विमलगहगणसमप्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरिउल्लोय चिल्लियाहिं जावुज्जलपहसियाभिरामाहिं सोहेमाणा तहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणामाए. उज्जोयविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसङ्गृति कुसविकुसविसुद्ध रुक्खमूला जाव चिटुंति ४॥ ... कठिन शब्दार्थ - संझाविरागसमए - सन्ध्या विराग समये-संध्या के समय में, दीवसिहा - दीपशिखा-दीपक का काम देने वाले, णवणिहिपइणो - नवनिधिपति-चक्रवर्ती, चक्कवालविंदे - चक्रवालवृन्दं-चक्रसमूह में चारों ओर, पभूयवट्टिपलित्तणेहे - प्रभूतवर्तिपर्याप्तस्नेहम-जिनमें बहुत सारी बत्तियां और भरपूर तैल भरा हुआ है, घणिउज्जालियतिमिरमद्दए - घणियोज्वालित तिमिरमर्दकम्-घने प्रकाश से अंधकार का मर्दन करने वाली. कणगणिगरकसमियपालियातयवणप्पगासो - कनकनिकरकुसुमित पारिजातकवन प्रकाशं-कनकनिकर (स्वर्ण राशि) जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजातक के वन के प्रकाश जैसा, कंचणमणिरयण विमल महरिह तवणिज्जुज्जल विचित्त दंडाहिं - कांचनमणि रत्न विमलमहार्ह तपनीयोज्वलं विचित्रदण्डाभि-कंचन (सोना) मणि रत्न से बने हुए विमल, महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं, सहसापज्जलिय ऊसवियणिद्ध तेयदिप्पंत विमलगहगण समप्पहाहिं - सहसा प्रज्वलितोत्सर्पित स्निग्धतेजोदीव्यद् विमल ग्रहगण समप्रभाभिः - एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज़ खूब प्रदीप्त हो रहा है, निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित, वितिमिरकरसूरपसरिउज्जोय चिल्लियाहिं - वितिमिरकर सूर्य प्रसृतोद्योत दीप्यमानाभिः - अंधकार को दूर करने वाले सूर्य की फैली हुई प्रभा जैसी चमकीली। भावार्थ - हे आयुष्मन् श्रमण! एकोरुक द्वीप में स्थान स्थान पर बहुत से दीपशिखा नामक वृक्ष हैं। जैसे संध्या के उपसन्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहां दीपिकाएं होती हैं जिनका प्रकाश . मण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियां और भरपूर तैल भरा होता है जो अपने घने प्रकाश से अंधकार को दूर करती हैं जिनका प्रकाश स्वर्ण राशि जैसे प्रकाश वाले फूलों से युक्त पारिजात (देव वृक्ष) के वन के प्रकाश जैसा होता है, कंचन मणिरत्न से बने हुए निर्मल बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है, जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो. अंधकार को दूर करने वाले सूर्य 'की फैली हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं जो अपनी उज्ज्वल प्रभा से मानो हंस रही हैं ऐसी वे दीपिकाएं शोभित होती हैं वैसे ही वे दीप शिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy