SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - मनुष्य उद्देशक - एकोरुक द्वीप का वर्णन · २९९ वह भूमिभाग शय्या के समान कोमल स्पर्श वाला है। जैसे आजीनिक (मृग चर्म), रुई, बूर (वनस्पति विशेष), मक्खन, तूल का मुलायम स्पर्श होता है उसी प्रकार मुलायम स्पर्शवाली वहां की भूमि है। वह भूमिभाग रत्नमय, स्वच्छ, चिकना, घृष्ट (घिसा हुआ), मृष्ट (मंजा हुआ), रजरहित, निर्मल, निष्पंक, कंकर रहित, सप्रभ, सश्रीक, उद्योत वाला, प्रसाद (प्रसन्नता) पैदा करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। वहाँ स्थित पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये। एगूरुयदीवे णं दीवे रुक्खा बहवे हेरुयालवणा भेरुयालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तवण्णवणा पूयफलिवणा खजूरिवणा णालिएरिवणा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति। __एगूरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ देसे० बहवे तिलया लवया णग्गोहा जाव रायरुक्खा णंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति। . एगूरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहूओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ एवं लयावण्णओ जहा उववाइए जाव पडिरूवाओ। . एगूरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजाइ गुम्मा, ते णं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमंति विहूयग्गसाहा जेण वायविहूयग्गसाला एगोरुय दीवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिभाग मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेंति। - एगूरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहूओ वणराईओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणराइओ किण्हाओ किण्होभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिउरुंबभूयाओ जाव महई गंधद्धणिं मुयंतीओ पासाईयाओ४॥ कठिन शब्दार्थ - विहुयग्गसाहा - विधूतानशाखाः, मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं - मुक्तपुष्प पुञ्जोपचारकलितं-फूलों की वर्षा, महामेहणिउरुंबभूयाओ - महामेघ निकुरम्बभूता:-महामेघ के समुदाय रूप, वणराईओ - वनराजियाँ-वनों की पंक्तियां। भावार्थ - उस एकोरुक नामक द्वीप में बहुत से वृक्ष हैं। साथ ही हेरुताल वन, भेरुताल वन, मेरुताल वन, सेरुताल वन, साल वन, सरल वन, सप्तपर्ण वन, सुपारी वन, खजूर वन और नारियल के वन हैं। ये वृक्ष और वन कुश और कांस से रहित यावत् शोभा से अतीव अतीव शोभायमान हैं। उस एकोरुक द्वीप में स्थान स्थान पर बहुत से तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष नंदिवृक्ष है जो कुश (दर्भ) और कांस से रहित हैं यावत् शोभा से अतीव अतीव शोभायमान है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy