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________________ २३४ जीवाजीवाभिगम सूत्र ___ गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी व छिराणवि हारू णेव संघयणमस्थि, जे पोग्गला अणिट्टा जाव अमणामा ते तेसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहेसत्तमाए॥ कठिन शब्दार्थ- ण - नहीं, अट्ठी - हड्डी, छिरा - शिराएं, हाल - स्नायु, अणिट्ठा - अनिष्ट। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संहनन कौनसा कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का छह प्रकार के संहननों में से कोई संहनन नहीं है क्योंकि उनके शरीर में हड्डियां नहीं हैं, शिराएं नहीं है, स्नायु नहीं है। जो पुद्गल अनिष्ट और अमनाम होते हैं वे उनके शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये। विवेचन - नैरयिक जीवों के छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता किंतु उनके शरीर के पुद्गल दुःखरूप होते हैं। नैरयिकों में संस्थान इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं सरीरा किं संठिया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता, एवं जाव अहेसत्तमाए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों के संस्थान दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें भवधारणीय शरीर हुंडक संस्थान वाले हैं और उत्तरवैक्रिय भी हुंडक संस्थान वाले हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये। . विवेचन - नैरयिक जीवों के संस्थान दो तरह के कहे गये हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। नैरयिक जीवों के दोनों तरह से हुण्डक संस्थान ही होता है। नैरयिकों के शरीर के वर्णादि - इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं सरीरया केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता? दागया है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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