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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नरकावास किसके बने हुए हैं ? २२९ मात्र में इस जंबूद्वीप के २१ चक्कर लगा कर वापस आ जावे- इतनी तीव्र गति से, इतनी उत्कृष्ट गति से, इतनी त्वरित गति से, इतनी चपल गति से, इतनी प्रचण्ड गति से, इतनी वेग वाली गति से, इतनी उद्घृत गति से, इतनी दिव्य गति से यदि वह देव एक दिन से यावत् छह मास तक निरन्तर चलता रहे तो भी रत्नप्रभा आदि के नरकावासों में से किसी को तो वह पार पा सकता है और किसी को पार नहीं पा सकता। इतने बड़े वे नरकावास हैं इसी तरह छठी नरक पृथ्वी तक कह देना चाहिये । अधः सप्तम पृथ्वी में ५ नरकावास हैं । उनमें से बीच का अप्रतिष्ठान नामक नरकावास लाख योजन विस्तार वाला है अतः उसका पार पाया जा सकता है किंतु शेष चार नरकावास जो असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण वाले हैं उनका पार पाना संभव नहीं है। इस तरह उपमा द्वारा नरकावासों का विस्तार कहा गया है । नरकावास किसके बने हुए हैं? इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया पण्णत्ता ? गोयमा! सव्ववइरामया पण्णत्ता, तत्थ णं णरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जंति, सासया णं तें णरगा दव्वट्टयाए 'वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया, एवं जाव अहेसत्तमाए ॥ ८५ ॥ कठिन शब्दार्थ - किंमया किसके बने हुए, सव्ववइरामया सर्वे वज्रमयाः, अवक्कमंति अपक्रामन्ति च्यवते हैं, विउक्कमंति - व्युत्क्रामन्ति-उत्पन्न होते हैं, चयंति - च्यवन्ते चवते-पुराने निकलते हैं, उववज्जंति - उत्पद्यन्ते-नये आते हैं, दव्वट्टयाए - द्रव्यार्थ से । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास किसके बने हुए हैं ? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास संपूर्ण रूप से वज्र के बने हुए हैं। उन नरकावासों में बहुत से जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने निकलते हैं और नये आते हैं। द्रव्यार्थिक नय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्ण पर्यायों से, गंध पर्यायों से, रस पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों से वे अशाश्वत हैं। इसी प्रकार यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये । विवेचन - रत्नप्रभा आदि के नरकावास वज्र से बने हुए हैं उनमें खर बादर पृथ्वीकायिक जीव और पुद्गल आते जाते रहते हैं अर्थात् पहले वाले जीव निकलते हैं और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं । इसी तरह पुद्गलों के परमाणुओं का आना जाना बना रहता है। फिर भी रत्नप्रभा आदि के नरकावास शाश्वत हैं। द्रव्य नय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं और सदाकाल रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होने पर भी उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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