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________________ ८४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ पडिलाभेमाणा, बहूहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। ते णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं समणोवासग-परियागं पाउणंति; पाउणित्ता आबाहंसि उप्पण्णसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई अणसणाए पच्चक्खायंति, बहूई भत्ताई अणसणाए पच्चक्खाएत्ता, बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेंति, बहूई भत्ताइं अणसणाए छेइसा आलोइय-पडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-महडिएसु महज्जुइएसु जाव महासुक्खेसु सेसं तहेव जाव एस ठाणे आयरिए जाव एगंतसम्मे साहू । तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए। ____ अविरइं पडुच्च बाले आहिज्जइ, विरइं पडुच्च पंडिए आहिज्जइ, विरयाविरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ तत्थ णं जा सा सव्वओ अविरई एस ठाणे आरम्भट्ठाणेअणारिए जाव असव्व-दुक्ख-पहीण-मग्गे एगंतमिच्छे असाहू। तत्थ णं जा सा सव्वओ विरई एस ठाणे अणारम्भट्ठाणे आरिए जाव सव्व-दुक्ख-पहीण-मग्गे एगंत सम्मे साहू, तत्थ णं जा सा सव्वओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभ-णो-आरंभट्ठाणे एस . ठाणे आरिए जाव सव्व-दुक्ख-पहीण-मग्गे एगंतसम्म साहू ॥३९॥ __कठिन शब्दार्थ - अभिगयजीवाजीवा - जीव अजीव को जानने वाले, आसवसंवरवेयणा णिजरा किरियाहिगरण-बंधमोक्खकुसला - आस्रव संवर वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के विषय में कुशल, असहेजदेवासुर णागसुवण्णजक्खरक्खस किण्णरकिंपुरिसगरुल गंधव्यमहोरगाइएहिं देवगणेहिं - देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, महोरग आदि देवगणों की सहायता न चाहने वाले तथा इनके द्वारा परीषह उपसर्ग दिये जाने पर भी, अणइक्कमणिजा - निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन न करने वाले एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन से अविचल, अट्ठिमिंजा पेम्माणुरागरत्ता - प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि (हड्डी) मजा(हड्डी के अन्दर शुक्रप्रधान एक तरल पदार्थ) वाले । भावार्थ - इसके पश्चात् तीसरा स्थान जो मिश्र स्थान है उसका भेद बताया जाता है। इस मनुष्य लोक में पूर्व आदि दिशाओं में कोई मनुष्य ऐसे होते हैं जो अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ करने वाले और अल्प परिग्रह रखने वाले होते हैं। वे धर्माचरण करने वाले, धर्म की अनुज्ञा देने वाले और धर्म से ही जीवन निर्वाह करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं, वे सुशील सुन्दरव्रतधारी तथा सुख से प्रसन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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