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________________ अध्ययन २ एवं बाईस प्रकार के परीषह और उपसर्ग सहन किए जाते हैं उस वस्तु की (मोक्ष की) आराधना करते हैं। वे उस वस्तु की आराधना करके अन्तिम उच्छ्वास और निःश्वास में केवल ज्ञान और केवल दर्शन को उत्पन्न करते हैं जो ज्ञान और दर्शन अन्तरहित, सर्वोत्तम, बाधा रहित, आवरणरहित, सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण है उक्त ज्ञान और दर्शन को उत्पन्न करके वे सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं तथा चतुर्दश रज्जु परिमाण लोक के स्वरूप को जान लेते हैं, संसार से मुक्त तथा शान्त हो जाते हैं एवं वे समस्त, दुःखों का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त कर लेते हैं । एगच्चाए पुण एगे भयंतारो भवंति, अवरे पुण पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा, अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति; तं जहा- महड्डिएसु, महज्जुइएसु, महापरक्कमेसु, महाजसेसु, महाबलेसु, महाणुभावेसु, महासुक्खे, ते णं तत्थ देवा भवंति महड्डिया, महज्जुइया, जाव महासुक्खा, हार- विराइय- वच्छा, कडगग-तुडिय-थंभिय-भुया, अंगय- कुंडल - मट्ठ- गंड - यल - कण्ण- 1 - पीढधारी, विचित्तहत्या - भरणा, विचित्त मालामउली-मउडा, कल्लाण-गंध- पवर- वत्थ- परिहिया, कल्ाणग-पवर-मल्यणुलेवण-धरा, भासुरबोंदि, पलंब-वणमाल-धरा, दिव्वेणं रूवेणं, दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संगाएणं, दिव्वेणं ठाणे, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुत्तीए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चाए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए दस- दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा · गइकल्लाणा, ठिइकल्लाणा, आगमेसि भद्दया यावि भवंति, एस ठाणे आयरिए जाव सव्व- दुक्ख-पहीण-मग्गे, एगंत सम्मे सुसाहू । दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ।। ३८॥ कठिन शब्दार्थ - कडगतुडियथंभियभुया - कटक (कड़ा) और केयूर, अंगुठी आदि भूषणों से युक्त हाथ वाले, अंगयकुंडलमट्ठगंड-यलकण्णपीढधारी - अंगद और कुंडलों से युक्त कपोल वाले, कर्णभूषण को धारण करने वाले, कल्लाणग-पवरमल्लाणुलेवणधरा- कल्याणकारी उत्तम माला और अंगलेपन को धारण करने वाले । Jain Education International ८१ भावार्थ- कोई महात्मा एक ही भव में मुक्ति को प्राप्त करते हैं और कोई पूर्व कर्मों के शेष रह जाने से मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त करके देवलोक में देवता होते हैं । महा ऋद्धिशाली, महाद्युतिवाले, महापराक्रमयुक्त, महायशस्वी, महाबल से युक्त, महाप्रभाव वाले और महासुखदायी जो देवलोक हैं उन में वे देवता होते हैं। वे वहाँ महा ऋद्धिवाले, महान् द्युति वाले, महान् सुख वाले तथा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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