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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ कठिन शब्दार्थ - अभिगिज्झति इच्छा करते हैं, अभिझंझाउरा - तृष्णातुर अप्पडिपुणेअप्रतिपूर्ण, अणिज्जाणमग्गे निर्याण मार्ग रहित, अधम्म पक्खस्स अंधर्म पक्ष का । भावार्थ- कोई मूर्ख जीव घर दार (स्त्री) को छोड़ कर मोक्ष के लिए उद्यत हो कर भी पूर्वोक्त विषय सुख की इच्छा करते हैं तथा गृहस्थ और दूसरे विषयासक्त प्राणी भी इस स्थान की चाहना करते हैं, वस्तुत: यह स्थान इच्छा योग्य नहीं हैं क्योंकि यह हिंसा झूठ कपट आदि दोषों से पूर्ण होने के कारण अधर्ममय है । इस स्थान में केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, न कर्मबन्धन ही नष्ट होता है। यह स्थान संसार को बढ़ाने वाला और कर्मपाश को दृढ़ करने वाला है । यद्यपि मृगतृष्णा के जल के समान इसमें कुछ सुख भी दिखाई देता है तथापि विषलिप्त अन्न भोजन के समान वह परिणाम में दुःखोत्पादक है अतः विद्वान् पुरुष को इस स्थान की इच्छा नहीं करनी चाहिये यह आशय है ।। ३२ ॥ विवेचन- यहाँ तीन पक्ष बतलाये गये हैं। अधर्म पक्ष, धर्म पक्ष और मिश्र पक्ष । पहले अधर्म पक्ष का विवेचन किया गया है। कई अधर्म पक्ष वाले लोग अपने तथा परिवार आदि के लिए आनुगामिक से लेकर शौवान्तिक तक चौदह प्रकार के व्यावसायिकों में से कोई एक व्यवसायी बनकर अपना पापमय व्यवसाय चलाते हैं। अतएव वे महापापी हैं। ६८ - शास्त्रकार ने अधर्म पक्ष के तीन अधिकारी पुरुष बतलाये हैं यथा - १. दीक्षा लेकर फिर विषय सुख साधनमय स्थान को पाने के लिये लालायित रहने वाले । २. भोगग्रस्त अधर्म स्थान को पाने की लालसा करने वाले गृहस्थ । ३. इस भोग विलास मय जीवन को पाने के लिये तरसने वाले तृष्णान्ध या विषय सुख भोगान्ध व्यक्ति । इस अधर्म पक्ष के विषय में आर्य और अनार्य पुरुषों का अभिप्राय-अनार्य लोग उनकी भोगासक्त जिन्दगी को देखकर उन्हें देवतुल्य यावत् देवों से भी श्रेष्ठ एवं आश्रितों का पालक आदि बताते हैं । आर्य लोग उनकी वर्तमान विषयसुख मग्नता के पीछे हिंसा आदि महान् पापों का परिणाम देखकर उन्हें क्रूर कर्मा, धूर्त, शरीर पोषक, विषयों के कीड़े आदि बताते हैं । - यह अधर्म पक्ष एकान्त अनार्य, अकेवल, अपरिपूर्ण, एकान्त मिथ्या और अहितकर है, ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने फरमाया है। Jain Education International अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्म पक्खस्स विभंगे एव - माहिज्जइ । इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति ; तं जहाआरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चगोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा 'वेगे' दुवण्णा वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तं वत्थूणि परिग्गहियाइं भवंति; एसो आलावगो जहा पोंडरीए तहा णेयव्वो । तेणेव अभिलावेण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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