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________________ अध्ययन २ 1 भावार्थ - इस जगत् में बहुत से पुरुष ऐसे होते हैं जो बाहर से सभ्य तथा सदाचारी प्रतीत होते हैं परन्तु छिप कर पाप करते हैं । वे लोगों पर अपना विश्वास जमाकर पीछे से उन्हें ठगते हैं । वे बिलकुल तुच्छ वृत्तिवाले होकर भी अपने को पर्वत के समान महान् समझते हैं । वे माया यानी कपट क्रिया करने में बड़े चतुर होते हैं। वे आर्य होते हुए भी दूसरे पर अपना प्रभाव जमाने के लिए अनार्य भाषा का व्यवहार करते हैं। वे कोई एक दूसरा विषय पूछने पर अन्य विषय बताते हैं । कोई कोई अन्य मतावलम्बी आदि ऐसे धूर्त होते हैं कि शास्त्रार्थ में वादी को परास्त करने के लिये तर्क मार्ग को सामने रख देते हैं तथा अपने अज्ञान को ढकने के लिये व्यर्थ शब्दाडम्बरों से समय का दुरुपयोग करते हैं । कपट के कार्यों से अपने जीवन को निन्दित करने वाले बहुत से मायावी अकार्यों में रत रहते हैं । जैसे कोई मूर्ख हृदय में गड़े हुए बाण को पीड़ा से डरकर स्वयं न निकाले तथा दूसरे के द्वारा भी न निकलवाये किन्तु उसे छिपा कर व्यर्थ ही दुःखी बना रहे इसी तरह कपटी पुरुष अपने हृदय के कपट को बाहर निकाल कर नहीं फेंकता है तथा अपने अकृत्य को निन्दा के भय से छिपाता है । वह अपने आत्मा को साक्षी बना कर उस अपने मायाचार की निन्दा भी नहीं करता है तथा वह अपने गुरु के निकट जाकर उस माया की आलोचना भी नहीं करता है । अपराध विदित हो जाने पर गुरुजनों के द्वारा निर्देश किए हुए प्रायश्चित्तों का आचरण भी वह नहीं करता है इस प्रकार कपटाचरण के द्वारा अपनी समस्त क्रियाओं को छिपाने वाले उस पुरुष की इस लोक में अत्यन्त निन्दा होती है उसका विश्वास हट जाता है, वह किसी समय दोष न करने पर भी दोषी माना जाता है, वह मरने के पश्चात् परलोक में नीच से नीच स्थान में जाता है । वह बार बार तिर्यञ्च योनि में जन्म लेता है। वह नरक का तो सदा पात्र होता रहता है। ऐसा पुरुष दूसरे को धोखा देकर लज्जित नहीं होता है अपितु प्रसन्नता का अनुभव करता : है । वह दूसरे को ठग कर अपने को धन्य मानता है । उसकी चित्तवृत्ति सदा परवश्चन में लीन रहती है उसके समस्त कार्य वञ्चनप्राय होते हैं । उसके हृदय में शुभभाव की प्रवृत्ति तो कभी होती ही नहीं । वह पुरुष मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का सेवन करने वाला है। यह ग्यारहवें क्रियास्थान का स्वरूप कहा गया है ।। २७ ॥ Jain Education International ५१ ****** विवेचन - कषाय में माया का तीसरा नम्बर है। इसको तीन शल्यों में से एक शल्य भी कहा है । शल्य का अर्थ है कांटा। जैसे कांटा पैर आदि में चुभ जाय और उसे न निकाला जाय तो वह हर वक्त पीड़ा पहुँचाता रहता है और खटकता रहता है। इसी प्रकार मायावी ( कपटी ) पुरुष द्वारा की हुई माया हर वक्त खटकती रहती है और उसे चारों तरफ से भय बना रहता है कि मेरी माया ( कपट) कहीं प्रकट न हो जाय ? मायावी पुरुष का इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। वह दुर्गतियों में बारबार परिभ्रमण करता रहता है। शास्त्रकार फरमाते हैं "मायी पमाई पुणरेति गब्धं" माया कपट का सेवन करने वाला प्रमादी पुरुष बारंबार जन्म मरण करता रहता है। अतः ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि मायाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में फरमाया है For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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