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________________ अध्ययन २ ४५ अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ अकम्हा-दंडे । से जहा णामए केइ पुरिसे सालीणि वा, वीहीणि वा, कोहवाणि वा, कंगूणि वा, परगाणि वा, रालाणि वा, णिलिजमाणे अण्णयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेग्जा, से सामगं तणगं कुमुदुगं वीही-ऊसियं कलेसुयं तणं छिंदिस्सामि-त्ति कट्ट सालिं वा वीहिं वा, कोहवं वा, कंगुंवा, परगं वा, रालयं वा, छिंदित्ता भवइ, इइ खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ अकम्हा-दंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं आहिज्जइ । चउत्थे दंड-समादाणे अकम्हा-दंडवत्तिए आहिए ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - अकम्हादंडवत्तिए - अकस्मात् दण्ड प्रत्ययिक, मियवत्तिए - मृगवृत्तिक-मृग को मारने का व्यापार करने वाला, उसु - बाण को, आयामेत्ता - खींच कर, णिसिरेजा- चलावे (छोडे), तित्तिरं - तीतर, वट्टगं - बटेर को, चडग - चटक (चिड़िया) लावगं - लावक, कवोयगं - कबूतर को, कविं - कपि (बंदर) को, कविंजलं - कपिंजल को, सालीणि- शाली को, वीहिणि - ब्रीहि । को, कोदवाणि - कोद्रव को, णिलिजमाणे - शोधन (निनान) करता हुआ, सामगं - श्यामक को, कुमुदुर्ग - कुमुद को । भावार्थ - दूसरे प्राणी को घात करने के अभिप्राय से चलाये हुए शस्त्र के द्वारा यदि दूसरे प्राणी का घात हो जाय तो उसे अकस्मात् दण्ड कहते हैं क्योंकि घातक पुरुष का उस प्राणी के घात का आशय न होने पर भी अचानक उसका घात हो जाता है। ऐसा देखने में भी आता है कि - मृग का घात करके अपनी जीविका करने वाला व्याध मृग को लक्ष्य करके बाण चलाता है परन्तु वह बाण कभी . कभी लक्ष्य से भ्रष्ट हो कर मृग को नहीं लगता किन्तु दूसरे प्राणी पक्षी आदि को लग जाता है । इस प्रकार पक्षी को मारने का आशय न होने पर भी उस घातक के द्वारा पक्षी आदि का घात हो जाता है अतः यह दण्ड अकस्मात् दण्ड कहलाता है। किसान जब अपनी खेती का परिशोधन करता है उस समय धान्य के पौधों की हानि करने वाले तृणों का साफ करने के लिये वह उनके ऊपर शस्त्र चलाता है परन्तु कभी कभी.उसका शस्त्र घास पर न लग कर धान्य के पौधों पर ही लग जाता है जिस से धान्य के पौधों का घात हो जाता है। किसान का आशय धान्य के पौधों को छेदन करने का नहीं होता फिर भी उससे धान्य के पौधों का छेदन हो जाता है इसे अकस्माद् दण्ड कहते हैं। अतः मारने की इच्छा न होने पर भी यदि अपने द्वारा चलाये हुए शस्त्र से कोई अन्य प्राणी मर जाय तो अकस्माद् दण्ड देने का पाप होता है । यही चौथे क्रिया स्थान का स्वरूप है ।। विवेचन - मारने का अभिप्राय न होते हुए भी अकस्मात् (अचानक) दूसरे प्राणी की हिंसा हो जाना यह अकस्मात् दंड कहलाता है। मूल में दो दृष्टान्त देकर इस बात को समझाया गया है यथाकिसी शिकारी ने मृग को मारने के लिये बाण चलाया किन्तु मृग न मारा जाकर तीतर, बटेर, आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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